मंगलवार, 26 जून 2018

शैलेंद्र तिवारी की स्मृति के खजाने से : फाख्ता






19 दिसम्बर 2010 दोपहर 2 बजे मैं अपनी छत पर बैठा आसमान पर उड़ती पतंगों को देख रहा था कि तभी एक पतंग कट गई। पतंग के कटते ही डोर का एक लच्छा बना और आसमान मैं उड़ते हुए एक फाख्ते के पंख में जा फसा।  पहले पंख फिर पैर और गर्दन डोर के लच्छे में फंस गये। 
क्योंकि हवा का बहाव तेज था और पतंग बड़ी तो फाख्ता असहाय सा होकर डोर के साथ उसी दिशा में निःसहाय सा बहने लगा जिस दिशा में उसे पतंग ले जा रही थी। क्योंकि मेरी आंखें पतंग के ऊपर टिकीं थीं तो मैंने तुरंत ही जान लिया कि अब फाख्ता मुसीबत में है और यदि तुरंत ही मदद नहीं की गई तो वह अपने प्राणों से हाथ धो सकता है। लेकिन डोर फाख्ते के वजन से लगातार नीचे की ओर गिर रही थी।
मेरे घर के ठीक सामने एक पार्क है और रविवार की छुटृटी होने के कारण बहुत से बच्चे पार्क में क्रिकेट खेल रहे थे। मैने तुरंत ही चिल्लाकर पार्क में खेलते हुए बच्चों को आवाज दी कि जैसे ही फाख्ता जमीन पर आए तो उसके और पतंग के बीच की डोर को तोड़ दो। और जैसे ही फाख्ता जमीन पर आया वह असहाय सा फड़फड़ा रहा था बच्चे करीब 6 से 10 वर्ष की आयु के रहे होंगे, फड़फड़ाते हुए पक्षी से घबरा रहे थे और उलझी हुई डोर को नहीं तोड़ पा रहे थे। मैं चिल्लाते हुए भी दौड़ता जा रहा था और जल्द ही सीढ़ियां उतर कर पार्क में पहंचा। मेरे पहुंचने से ठीक पहले ही एक बच्चे ने खीचती हुई डोर को तोड़ दिया।
फाख्ता किनारे घास पर निःसहाय सा पड़ा था मैने पास जाकर उसे उठाया तब तक सारे बच्चे मेरे पास आ गये और गौर से देखने लगे। मैने सबसे पहले उसकी गर्दन पर लिपटी हुई डोर से उसको छुड़ाया फिर उसके उड़ने वाले पंखों से उलझी हुई डोर को सुलझाया तथा उस फाख्ते की पॅूछ से उलझी डोर को छुड़ाने की कोशिश करने लगा। इस बीच मुझे उसकी हृदय गति का अनुभव हो रहा था वह काफी डरा हुआ था। बच्चे मुझे बहुत उत्सुक्ता से देख रहे थे। थोडी सी पकड ढीली कर मैं उसके पूॅछ में उलझे धागे को छुड़ाने लगा वह घायल नही हुआ था बल्कि डरा हुआ था और आॅखें बन्द किये हुए था। पकड ढ़ीली करने के कारण उसे आराम महसूस हुआ होने के कारण उसने धीरे-धीरे आॅखे खोली तब तक उसके पूछ का उलझा हुआ अधिकतर धागा निकाला जा चुका था। अचानक एक झटके से उसने उड़ान भरने की कोशिश करी परन्तु पूछ मे धागा फंसा होने के कारण उसकी पूछ के पंख टूटने के कारण वह हाथ से छूट गया और उड़ गया। बच्चे लोग ताली बजाने लगे और और उसकी जान बचने से बहुत खुश हुए। यह उनके लिये एक सुखद अनुभव था।
अगले दिन 20 दिसम्बर 2010 की सुबह मैं रोज की तरह मार्निग वॅाक के लिये तैयार हो रहा था कि अचानक मेरे कान में फाख्ते की आवाज सुनायी पड़ी। आवाज कमरे के दरवाजे के ऊपर की आर से आ रही थी। अन्दर से दिखायी नही दे रहा था। अगर मैं बाहर जाकर देखता तो सम्भवतः वह डर कर उड़ जाता। मैने अपने बेटे को आवाज देकर ऊपर आकर सीढ़ियों से उसे देखने को बोला। वह सीढ़ियों के पास आकर बोला कि पापा इस डव/फाख्ते की तो पूॅछ ही नहीं है’। मैं स्तब्ध था। मैंने पूरी कहानी अपने बेटे को सुनायी तो वह बोला पापा शायद यह आपको थैंक्स कहने आयी है।
उसके कथन से यह अहसास हो गया कि समस्त प्राणी अपने प्रति किये गये प्रेम को पहचानते है। उस दिन के बाद  वह फाख्ता यदा कदा मेरी छत पर आने लगा, छत पर रखा दाना चुगता पानी पीता और धीरे-धीरे उसकी पूॅछ के पंख भी निकल आये और उसने वहीं कहीं अपना बसेरा बना लिया।




                     शैलेंद्र  तिवारी
                    सेक्टर  21 
                    इन्दिरा  नगर
                    लखनऊ

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक अनमोल अनुभव है आपका तथा हृदय का लगव है

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद। प्रक्रति के साथ होने का अनुभव सदैव आनन्दमय होता है।

    जवाब देंहटाएं