बुधवार, 26 अक्टूबर 2022

ज्ञान पिपासु एक बालकथा संयोजन सुनील कुमार सिन्हा


 📚 *li.ज्ञानपिपासु.li*📚



एक गुरु के दो शिष्य थे। एक पढ़ाई में बहुत तेज और विद्वान था और दूसरा फिसड्डी। पहले शिष्य की हर जगह प्रसंशा और सम्मान होता था। जबकि दूसरे शिष्य की लोग उपेक्षा करते थे। एक दिन रोष में दूसरा शिष्य गुरू जी के जाकर बोला, “गुरूजी! मैं उससे पहले से आपके पास विद्याध्ययन कर रहा हूँ। फिर भी आपने उसे मुझसे अधिक शिक्षा दी।”


गुरुजी थोड़ी देर मौन रहने के बाद बोले, “पहले तुम एक कहानी सुनो। एक यात्री कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे प्यास लगी। थोड़ी दूर पर उसे एक कुआं मिला। कुएं पर बाल्टी तो थी लेकिन रस्सी नही थी। इसलिए वह आगे बढ़ गया। थोड़ी देर बाद एक दूसरा यात्री उस कुएं के पास आया। कुएं पर रस्सी न देखकर उसने इधर-उधर देखा।पास में ही बड़ी बड़ी घास उगी थी। उसने घास उखाड़कर रस्सी बटना प्रारम्भ किया।


थोड़ी देर में एक लंबी रस्सी तैयार हो गयी। जिसकी सहायता से उसने कुएं से पानी निकाला और अपनी प्यास बुझा ली।” गुरु जी ने उस शिष्य से पूछा, “अब तुम मुझे यह बताओ कि प्यास किस यात्री को ज्यादा लगी थी?” शिष्य ने तुरंत उत्तर दिया कि दूसरे यात्री को।


गुरूजी फिर बोले, “प्यास दूसरे यात्री को ज्यादा लगी थी। यह हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि उसने प्यास बुझाने के लिए परिश्रम किया। उसी प्रकार तुम्हारे सहपाठी में ज्ञान की प्यास है। जिसे बुझाने लिए वह कठिन परिश्रम करता है। जबकि तुम ऐसा नहीं करते।”


शिष्य को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। वह भी कठिन परिश्रम में जुट गया।


संयोजन 

सुनील कुमार  सिन्हा

कालपी

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"जगमग हो संसार" :!चना प्रिया देवांगन "प्रियू

 



आया दीवाली का, शुभ त्यौहार।
दीप जलाते मिलकर, घर अरु द्वार।।
जगमग रोशन होता, है संसार।
प्रेम बाँटते सारे, जी परिवार।।

धरती में आये हैं, प्रभु श्री राम।
दोनों हाथों जोड़े, लेते नाम।।
जपते माला प्रतिदिन, प्रातः शाम।
मिटते संकट सब का, बनते काम।।

सच्चे मन से पूजा, करते लोग।
निकट नहीं आते हैं, मिटते रोग।।
बच्चें बूढ़े करते, माला जाप।
सच्ची सेवा से हर,कटते पाप।।

रावण का बढ़ता जब, अत्याचार।
राम लला हाथों ने, कर संहार।।
लगे निशाना उनके, बोड्डी बाण।
तड़प तड़प रावण भी, त्यागे प्राण।।

अच्छाई की होती, हरदम जीत।
बढ़े हौसला मन में, बढ़ती प्रीत।।
राम लखन सीता माँ, आये द्वार।
गाँव वासियों द्वारा, अर्पित हार।।

आओ बच्चों मिलकर, करे प्रणाम।
बनना इस कलयुग में, तुम भी राम।।
उज्ज्वल होगा तब जी, भारत देश।
मिट जाएगा संकट, सारा क्लेश।।




प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़

Priyadewangan1997@gmail.com

पहचानो बच्चो! वीरेन्द्र सिंह बधजवासी की बालरचना

 




बोली  से  पहचानो  बच्चो

कौन  आपके  पास  खड़ा

कौन  देह  में  छोटा तुमसे

बोलो   तुमसे   कौन  बड़ा  ।


बड़े ध्यान से सुनो बताओ

चीं चीं का स्वर किसका है

इंदु  बोली   दीदी   यह  तो

गौरैया   के  स्वर    सा   है।


कांवकांव की बोली कर्कश

कौन   सुनाता   है   तुमको

बोला  चीनू    मुंडेरों     पर

दिखते   हैं    कौए   हमको।


कानों  को  चौकन्ना  करके

म्याऊँ    कौन   बोलता   है

गुड़िया बोली नन्हा बिल्ला

अपनी   पोल   खोलता है।


कोई  बतलाए  कुकड़ू   कूँ

करके   कौन   जगाता   है

मुर्गे का  स्वर ही  तो  दीदी

निंदिया   दूर    भगाता  है।


ऐसे  ही  अनेक  जीवों  के

स्वर    बच्चों   ने  पहचाने

घूम-घूमकर चिड़ियाघर में

लगे  सभी को  सिखलाने।


हैं  सबकी आँखों  के  तारे

सारे    ये     बच्चे      प्यारे 

यही  देश  के   कर्णधार  हैं

सही   स्वरों   के   रखवाले।

      


      वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

         9719275453

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अपना गाँव बालगीत रचना मंजू यादव

 


कितना प्यारा लगता गाँव।

बैठे सभी बरगद की  छाव


चहुंओर छाई हरियाली।।

वन,उपवन को सीचे माली।।

 

मिल,जुल खेले खेल निराले।।

टोली बना चलें मतवाले।।



बहती हवा सुगन्धित सर,सर।।

पत्ते सारे करते फर, फर।।


सावन में झूले पड़ जाते।।

मेघ,मल्हार सभी मिल गा ते।।


बच्चे मिलकर पैग बढ़ाते।।

पैर बड़ा डाली छू आते।।


आती जब होली मस्तानी।।

रंग लगा करते मनमानी।।


दिवाली पर दीप जलाते।।

मिल जुल खील बताशे खाते।।


ऐसा है कुछ गाँव हमारा।।

लगता हमको सबसे प्यारा।।



मंजू यादव एटा

इस बार की दीवाली बालकथा रचना प्रिया देवांगन "प्रियू"




          नरेश कक्षा आठवीं का छात्र था। उसकी दो बहनें थीं- जयंती और नंदनी। वह सबसे छोटा था। माँ-बाप खेती-किसानी करते थे। अल्प वर्षा के कारण इस साल फसल अच्छी नहीं थी। वैसे भी घर की आर्थिक स्थिति पहले से खराब थी। जैसे भी हो, बस गुजर-बसर हो रहा था।
        दीपावली का त्यौहार आया। दीपावली की पूरी तैयारी हो गयी थी। नरेश के बाबूजी रघु बच्चों के लिए नये कपड़े नहीं ले पाये थे। नरेश सबसे छोटा था। इसलिए सब के आँखों का तारा था। इस बात का नरेश घर में पूरा - पूरा फायदा उठाता था। दीपावली की तैयारी में ही बहुत से पैसे खर्च हो चुके थे। नये कपड़े के लिए सोचना पड़ रहा था। रघु और उसकी पत्नी गीता मन ही मन सोच रहे थे कि थोड़ा सा घर में धान रखा है; मंडी ले जाते हैं, वो बिक जाये तो बच्चों के लिये कपड़े भी आ जायेंगे। रघु मंडी की तरफ गया और नरेश खेलने के लिए अपने दोस्त विनय के घर चला गया। विनय ने नरेश को अपना नया कपड़ा, फुलझड़ी, और बहुत सारे पटाखे  दिखाते हुए पूछा - "तुमने कौन - कौन से पटाखे खरीदे हैं ? नरेश , चलो न तुम्हारे घर , मुझे तुम्हारे भी नये कपड़े और पटाखे देखने है।" नरेश झट से बोला - "आज शाम को मेरे बाबू जी नये कपड़े और पटाखे लायेंगे फिर तुम्हें दिखाऊँगा।" विनय बोला- "ठीक है भाई, इस बार दोनों साथ में मिलकर दीपावली मनायेंगे।"
          नरेश को पता था कि घर की हालत अच्छी नहीं है। फिर भी रघु के पास गया और बोला- "बाबू, मुझे नये कपड़े चाहिये, विनय के पापा उसके लिए कपड़े और पटाखे भी ले आये हैं।" रघु नरेश की तरफ टुकुर-टुकुर देखने लगा। उसकी बहनें भी देखने लगीं , क्योंकि नरेश अलबेला भी था। वह मुँह बनाते हुए कह रहा था। जयंती और नंदनी दोनों बहनें घर की हालत समझती थीं। नंदनी को दीपावली के पहले ही खेल प्रतियोगिता में दो हजार रुपये मिले थे। नंदनी अपनी कॉपी में ‌‌यह सोचकर दबा कर रखी थी कि दीपावली में नये कपड़े खरीदने के काम आएँगे। आज जब कॉपी ढूँढने लगी, तो वह कॉपी ही नहीं मिल रही थी। वह थोड़ी परेशान हो गयी थी। नरेश पूरे गांँव में घूम-घूम कर खेलता था। खेलते - खेलते अचानक देखा कि एक बुढ़िया बाजार में दीये बेचते-बेचते बेहोश हो गयी। नरेश, विनय और कुछ साथी उस बुढ़िया के पास गये और आवाज लगाई - "दाई , ओ दाई। फिर विनय ने बुढ़िया के मुँह पर पानी छिड़का। तब जाकर उसका होश आया। बच्चे खुश हो गये। नरेश दूसरों की मदद के लिए हमेशा आगे आ जाता था। सभी बच्चे बोले कि अब दाई को होश आ गया। चलो घर तरफ चलते हैं। नरेश कुछ समय चुप रहा, फिर बोला- "तुम लोग जाओ, मैं आता हूँ।" 
          विनय बोला- "क्यों...अब क्या हुआ ?"
          नरेश ने कहा - मुझे उस दाई की मदद करनी है। चलो हम सब बैठकर दीये बेचते हैं।" सभी दोस्त हँसने लगे। उसकी खिल्ली उड़ाने लगे- "अरे नरेश, तू पागल हो गया है क्या ऐसे बाजार में बैठ कर हम दीये बेचेंगे। ना बाबा ना। मेरे घर वाले मुझे देखेंगे तो मेरा धनिया बो देंगे। मैं जा रहा हूँ।" कहते हुए विनय वहाँ से चला गया।
         नरेश बुढ़िया के पास बैठ गया, और उसकी मदद करने लगा। सारे दीये बहुत ही जल्दी बिक गये। नरेश जा ही रहा था कि बूढ़िया ने नरेश का हाथ पकड़ा। बोली- "बेटा अपनी मेहनत की कमाई ले जा।"
         नरेश- "नहीं.....नहीं....माँ जी। मैं नहीं ले जा सकता।"
          बुढ़िया बोली- "घर में सिर्फ मैं बस रहती हूँ। मुझे इतने पैसे की जरूरत नहीं है बेटा। दीपावली का त्यौहार है। अपनी डोकरी दाई का ही आशीर्वाद समझ कर ले लो।" नरेश के मन में लड्डू फूटा। फिर उसे पाँच सौ रुपये मिल गये। नरेश फूला नहीं समा रहा था। नरेश और रघु दोनों एक साथ ही घर पहुँचे। दोनों के चेहरे में अनोखी मुस्कान थी। नरेश की माँ पूछ बैठी कि क्या बात है भाई, बाप-बेटे के चेहरे में इतनी खुशी है। बाजार में खजाना मिल गया क्या ..?"  नरेश ने सभी को आपबीती सुनाई। रघु ने भी धान की बिक्री वाली बात बताई। सब बड़े खुश हुए, लेकिन नंदनी अभी भी परेशान थी। नरेश ने पूछा- "क्या हुआ दीदी, क्यों परेशान हो ?" नंदनी बोली- "मेरी नीले रंग की कॉपी नहीं मिल रही है।" नरेश बोला- "ओ ....! इतनी सी बात में परेशान हो रही हो। वो तो आलमारी में है।" नंदनी झट से बोली- दिखा, दिखा कहाँ है?" नरेश बोला- "इतना क्यों कूद  रहे हो? मैं देख रहा हूँ, इसमें क्या है ?" फिर बोला- "दीदी, ये कॉपी में तो कुछ नहीं है। बिल्कुल खाली है।" नरेश की बातें सुनकर नंदनी के पैरों तले जमीन खिसक गयी। लेकिन नरेश मुँड़ी गड़िया कर दाँत दिखा रहा था, तो सब समझ गए कि नरेश मजाक कर रहा है। रघु ,नरेश और नंदनी तीनों ने अपने-अपने पैसे इकट्ठे किये। रघु के घर बूँद-बूँद में घड़ा भर ही गया। नए कपड़े, पटाखे, मिठाई व अन्य जरूरत के सामान खरीदे गये। खुशी-खुशी दीपावली मनाई गयी।
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टीप : *छत्तीसगढ़ी शब्द व मुहावरे का प्रयोग।*
धनिया बोना - भड़क जाना, डाँटना।
दाई - माँ।
डोकरी दाई - दादी।
मुँड़ी गड़ियाना - सिर नीचे करना।

दाँत दिखाना - जोर-जोर से हँसना।

रचनाकार
प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़

Priyadewangan1997@gmail.com

*सूरन / जिमीकन्द /ओल की सब्जी* डा. पशुपति पाण्डेय




 मेरे गांव में दीपावली के दिन सूरन की सब्जी खाने की प्रथा थी। सूरन को जिमीकन्द या ओल भी बोलते हैं। आजकल तो मार्केट में हाईब्रीड सूरन आ गया है, कभी-कभी देशी सूरन भी मिल जाता है।

बचपन में ये सब्जी फूटी आँख भी नहीं सुहाती थी, लेकिन चूँकि बनती यही थी तो खाना पड़ता था। तब मैं सोचता था कि  लोग कितने कंजूस हैं जो आज त्यौहार के दिन भी खुजली वाली सब्जी खिला रहे हैं। बड़े हुए तब सूरन की उपयोगिता समझ में आई।

सब्जियों में सूरन ही एक ऐसी सब्जी है जिसमें फास्फोरस अत्यधिक मात्रा में पाया जाता है। ऐसी मान्यता है, अब तो मेडिकल साइंस ने भी मान लिया है कि इस एक दिन यदि हम देशी सूरन की सब्जी खा लें तो स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पूरे साल फास्फोरस की कमी नहीं होगी।

मुझे नहीं पता कि यह परंपरा कब से चली आ रही है, लेकिन सोचिए तो सही कि हमारे लोक मान्यताओं में भी वैज्ञानिकता छुपी हुई होती थी।

धन्य हैं पूर्वज हमारे, जिन्होंने विज्ञान को परम्पराओं, रीतियों, रिवाजों, संस्कारों में पिरो दिया। 

                   


  

       डा. पशुपति पाण्डेय 

आओ पावन दीप जलाएं! रचना वीरेन्द्र सिंह बृजवासी

 


आओ  पावन  दीप  जलाएं

अंधकार   को   दूर   भगाएं

अलगावों काभाव त्यागकर

इक-दूजे  के  हम  हो जाएं।


माँ लक्ष्मी भगवान गजानन

के चरणों  में  शीश  झुकाएं

फूल पान मिष्ठान  खीर का

शुद्ध  भाव से  भोग  लगाएं।


घर-आंगन,  कोने-कोने   में

दीपों  की अवलियाँ  सजाएं

मिलकर सबके साथ पटाख़े

तेज़ बम्ब, फुलझड़ी जलाएं।


मिष्ठानों,  खीलों   मेवों  का

थाल सजा घर-घर ले  जाएं

नर नारायण की  सेवा  कर

आशीषों   का   ढेर  लगाएं।


गोधन  का  त्योहार  मनाने

गौ माता को तिलक लगाएं

बहनों से  टीका  करवाकर

उपहारों  से  घर  भर आएं।


सब त्यौहारों पर  ईश्वर की

अनुकंपा को भूल न  जाएं

छोटे-बड़े सभी मिलकरके

दीवाली  का   पर्व   मनाएं।

      


       वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

           9719275453

            23/10/2022

दीपावली रचना शरद कुमार श्रीवास्तव

 



 


दीपमालाएं हमारे घरों को रौशन करें

लक्ष्मी की कृपा बरसे हर्षित मन करें

हो प्रसन्न, सब ओर खुशियाँ व्याप्त हो

हर दिशाओं से धनधान्य की प्राप्ति हो

जहाँ नजर तेरी पड़े हो वहाँ रंगीनियाँ

कहीं से कभी झांके नहीं गम गीनियाँ

झाँक लेना अट्टालिका से नीचे अहो

पास मंे तेरे कोई भी भूखा सोया न हो

उसे होली, दीवाली से लेना है क्या भला

दीवाली मनी है गर दो वक्त चूल्हा जला

रौशन भी हो रौशनी, ऐसा उजाला करें

सम्पन्न होएं राष्ट्र स्वदेशी का प्रण घरे

मिलेगा रोजगार कोई भूखा होगा नहीं

ऐसा स्वदेशी, नव-राष्ट्र निर्मित हम करें

विदेशी झालरें हम प्रथम तिरस्कृत करें

माटी के बने दीप से घर को रोशन करें।


शरद कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

"हम भी गाँधी बन जायेंगे" : प्रिया देवांगन "प्रियू" की रचना

 




सदा सत्य की चलते राहें। नेक कर्म में फैले बाहें।।
दृढ़ निश्चय दिखलायेंगे। हम भी गाँधी बन जायेंगे।।

लक्ष्य साध कर भारतवासी। कर्म प्रबल नित बन सन्यासी।।
उच्च सोच अरु अविरल वाणी। निर्मल मन हमने है ठानी।।
सदा सफलता को पायेंगे। हम भी गाँधी बन जायेंगे।।

स्वच्छ रहेगा देश हमारा। और बढ़ेगा भाईचारा।।
क्रोध-मोह को तन से छोड़ें।जीवन से हर नाता जोड़ें।।
मातृभूमि की रक्षा होगी। नहीं रहेंगे ढोंगी जोगी।।
प्रतिपक्षी से टकरायेंगे। हम भी गाँधी बन जायेंगे।।

हमें चाहिये वो आजादी। जहाँ जन्म लेते फौलादी।।
चलें कदम जब मिलजुल साथी। जैसे चलते दल में हाथी।।
दोष बढ़े तब आये आँधी। रूह रूह में होंगे गाँधी।।
ज्ञानतत्व को फैलायेंगे। हम भी गाँधी बन जायेंगे।।



प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़

Priyadewangan1997@gmail.com

कितने जानवर (बाल कविता) सुशील शर्मा की रचना

 




उड़ कर आई चिड़िया एक।

दो तितलीयां वहाँ थी नेक।


तीनों मिलकर खेलीं खूब।

बकरी आई चरती दूब।


चारों गए पास के जंगल।

वहाँ चल रहा था इक दंगल।


वहाँ मिला इनको खरगोश।

भरा हुआ था उसमें जोश।


पांचों मिलकर दंगल लड़ते।

कमजोरों से वो सब भिड़ते।


तभी उन्हें कौवा टकराया।

सबने उसको दोस्त बनाया।


मिला सातवां उनको भालू।

जो बस खाता कच्चे आलू।


कौवे ने सबको भड़काया।

हाथी से लड़ने उकसाया।


हुआ शेर का गर्जन भारी।

अब सब भागे बारी बारी।


सब बच्चे मुझको बतलाओ।

सभी जानवर को गिनवाओ।





सुशील शर्मा

कागज की नाव : शरद कुमार श्रीवास्तव

 



कागज की नाव  चली

टिंकूजी के गांव  चली

सड़क मोहल्ले व गली  

बहते हुए पानी मे चली


वो छुपती छुपाते चली

वो बचती बचाते चली

टिंकूजी की नाव चली 

कागज की नाव चली 


बरसाती पानी में चली

झूमती झामती चली

टिंकूजी की नाव चली 

कागज की नाव चली 


पिंटू की एक न चली 

मन्टू की एक न चली

टिंकू ही की नाव चली 

कागज की नाव चली 


शरद कुमार श्रीवास्तव,

मत मारो गाँधी को (गाँधी जयंती पर विशेष ) सुशील शर्मा

 






गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं

हमारी सोच में

हमारे संस्कारों में

हमारे आचार व्यवहारों में

हमारे प्रतिकारों में

गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं।

गाँधी 1948 में नहीं मरे

जब एक गोली

समा गई थी उनके ह्रदय में

वो गाँधी के मरने की शुरुआत थी

गाँधी कोई शरीर नहीं था

जो एक गोली से मर जाता

गाँधी एक विशाल विस्तृत आसमान है

जिसे हम सब मार रहें है हरदिन।

हम दो अक्टूबर को

गाँधी की प्रतिमाओं को पोंछते हैं

माल्यार्पण करते हैं

गांधीवाद ,सफाई ,अहिंसा पर

होते हैं खूब भाषण

शपथ भी ली जातीं हैं।

और फिर रेप होते हैं

हत्याएँ होतीं हैं।

दीना माँझी ढोता है

पत्नी का शव काँधे पर।

नेमीचंद भूख से मर जाता है।

एक तरफ चमकते कान्वेंट है

दूसरी ओर फटी टाटपट्टी पर बैठे

सरकारी स्कूल के गरीब बच्चे हैं।

एक तरफ लाल झंडे

एक तरफ हरे झंडे

एक तरफ भगवा झंडे

लहराते नीले झंडे

बीच में हाँफता तिरंगा।

राजनीति की गंदी बिसात पर

हम तिल तिल कर

मारते जाते हैं गाँधी को।

अभी भी वक्त है।

अंतिम सांसे ले रहे

गाँधी के आदर्शों को

अगर देना है संजीवनी

तो राष्ट्रनेताओं को छोड़नी होगी

स्वार्थपरक राजनीति

राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध

होना होगा एकजुट।

कटटरपंथियों को देनी होगी मात।

हमें ध्यान देना होगा

स्वच्छता,अहिंसा और सामुदायिक सेवा पर।

बनाये रखनी होगी सांप्रदायिक एकता।

अस्पृश्यता को करना होगा दूर।

मातृ शक्ति का करना होगा

सशक्तिकरण।

जब कोई आम आदमी

विकसित होता है

तो गाँधीजी उस विकास में

जीवित होते हैं।

जब कोई दलित ऊँचाइयों 

पर जाता है

तब गांधीजी मुस्कुराते हैं।

जब हेमादास भारत के लिए

पदक लाती है

गांधीजी विस्तृत होते हैं

गाँधीजी भले ही भारत में

रामराज्य का पूर्ण स्थापन नहीं कर सके।

भले ही वो मनुष्य को बुराइयों 

से दूर न कर सके।

किन्तु युगों युगों तक उनके विचार

प्रासंगिक रहेंगे।

गाँधी मानवता के प्रतीक हैं।

गाँधी श्रद्धा नहीं सन्दर्भ हैं।

गाँधी व्यक्ति नहीं भारत देश हैं।

गाँधी प्रेरणा नहीं आत्मा हैं।

सुनो

मत कत्ल करो अपनी आत्मा का

मत मारो गाँधी को।



डॉक्टर  सुशील  शर्मा