रविवार, 26 फ़रवरी 2017

शबनम का बस्ता

इसी वर्ष पहली कक्षा में
उसका नाम लिखाया है
नया-नया बस्ता शबनम को
अब्बा ने दिलवाया है।
रंग-बिरंगे, सुन्दर-सुन्दर
छपे हुए हैं उसमें फूल
रोज़ टांगकर, हँसते-हँसते
शबनम जाती है स्कूल।


                        शादाब आलम
(बच्चों  के  साहित्य  के  लिए  उत्तर  प्रदेश  हिन्दी  संस्थान  से वर्ष  2016 के लिए  ₹51000/- के  पुरुस्कार  से सम्मानित )
                        लखनऊ 



कोयल काली

कूँ कूँ करती कोयल काली 
मीठे  बोल  सुनाती  है ।
  इस  डाली  से  उस  डाली  पर 
     पल  भर  में  उड़  जाती  है ।
चैत  मास  जब  आता  है 
    तो  फूली  नहीं  समाती  है ,
      बैठ  आम  की  डाली पर 
        अति  ख़ुश  हो  गीत  सुनाती  है ।
कोयल  तो  काली  कुरूप  है 
 फिर  भी  सब  को  भाती  है 
     सच  है  अच्छे  गुण  के  आगे ,
          कुरूपता  छिप  जाती  है !!

कोयल !!


ऊषा कस्तूरिया


नोट :  यह कविता। मैं आपको बताना चाहूँगी कि कि लगभग 7/8 दशक पूर्व मुझे मेरी माँ ने सुनाई / सिखाई थी यह कविता । स्मृति - कोश में रह गई यह रचना । मैं नहीं जानती कि इसकी रचयिता मेरी माँ थी अथवा कोई और । मैंने कहीं और इसे पढ़ा नहीं । श            उषा कस्तूरिया  



झूठ बोलने की सजा


   बाघ आ गया बाघ आ गया,


   कहकर चरवाहा चिल्लाया।

    आये गाँव के लोग वहां तो,

    बाघ किसी ने वहां न पाया।

     झूठ बोलकर चरवाहे ने ,

    बार बार विश्वास गवांया।


     किन्तु बाघ जब सच में आया,

      कोई बचाने उसे न आया।

     झूठ बोलने वालों का तो,

      हाल यही है होता आया।

     दुनियां वालों को  ऐसा यह,

      काम कभी बिलकुल न भाया।


       
                      प्रभुदयाल श्रीवास्तव
                    छिंदवाड़ा ( मध्य  प्रदेश )

भुवन बिष्ट की रचना : शिक्षा का अधिकार




शिक्षा का अधिकार

शिक्षा ज्ञान बढ़ायेगी,
मंजिल तक पहुँचायेगी,
बने शिक्षित हर परिवार,
मिला शिक्षा का अधिकार,

सबको पाठ पढ़ाना है,
शिक्षा सबको पाना है,
बहेगी अब ज्ञान की धारा,
शिक्षा का अधिकार हमारा,


शिक्षा की अब ज्योति जलेगी,
हर बालक बालिका पढ़ेगी,
होगा ज्ञान का अब संचार,
मिटे अशिक्षा अत्याचार,


जाति धर्म का भेद न जाने,
शिक्षा सबको है पहचाने,
आओ हम सब भारत भू के,
अंधकार को दूर करें,


शिक्षा की अब ज्योति जलायें,
झलक एकता की दिखलायें,
शिक्षित होगा हर परिवार,
मिला है शिक्षा का अधिकार,
       










  भुवन बिष्ट
  रानीखेत (उत्तराखण्ड)

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

अर्चना सिंह का बालगीत : चतुर बानर

चतुर वानर 


चतुर वानर की सुनो कहानी,

वन में मित्रों संग,

करता था मनमानी।

बंदरिया संग घूमा करता,

कच्चे-पक्के फल खाता था।

पेड़-पेड़ पर धूम मचाता,

प्यास लगती तो नदी तक जाता।

पानी में अपना मुख देख वो,

गर्व से खुश हो गुलट्टिया खाता।


तभी मगरमच्छ आया निकट,

देख उसे घबड़ाया वानर।

मगर ने कहा,‘‘न डरो तुम मुझसे

आओ तुमको सैर कराऊॅं,

इस तट से उस तट ले जाऊॅं।

कोई मोल न लूॅंगा तुमसे,

तुम तो हो प्रिय मेरे साॅंचे।’’

वानर को यह कुछ-कुछ मन भाया,

पर बंदरिया ने भर मन समझाया।

सैर करने का मन बनाकर,

झट जा बैठा, मगर के पीठ पर

लगा घूमने सरिता के मध्य पर।

तभी मगर मंद-मंद मुसकाया,

कलेजे को खाने की इच्छा जताया,

‘कल से वो भूखी है भाई

जिससे मैंने ब्याह रचायी

उसकी इच्छा करनी है पूरी

तुम्हारा कलेजा लेना है जरुरी।’

सुन वानर को आया चक्कर,

घनचक्कर से कैसे निकले बचकर ?

अचंभित होकर वो लगा बोलने,

ओह! प्रिय मित्र पहले कहते भाई।

मैं तो कलेजा रख आया वट पर,

चलो वापस फिर उस तट पर।

मैं तुम्हें कलेजा भेंट करुॅंगा,

न कुछ सोचा, न कुछ विचारा

मगर ने झट दिशा ही बदला।

ले आया वानर को तट पर,

और कहा,‘ मित्र करना जरा झटपट।’

वानर को सूझी चतुराई,

झट जा बैठा वट के ऊपर।

दाॅंत दिखाकर मगर को रिझाया,

और कहा,‘अब जाओ भाई

तुम मेरे होते कौन हो ?

तेरा-मेरा क्या रिश्ता भाई ?

वानर ने अपनी जान बचाई,

मगर की न चली कोई चतुराई।   



  

                      ... अर्चना सिंह जया

शरद कुमार श्रीवास्तव की कहानी : नन्ही चुनमुन



नन्ही  चुनमुन
चुनमुन रोज की  तरह  स्कूल  से  घर वापस  आ गई ।   जल्दी  से  उसने  अपना  स्कूल बैग सोफे पर फेंका, जूते मोजे उतारे और  बिना  स्कूल  की  यूनीफार्म बदले ही अपने  खिलौने  वाली  बास्केट,  खंगाल डाली ।  उसके  क्रेयानस् के डिब्बे मे नीले  रंग  का  क्रेयान नहीं  मिल  रहा  है  ।  ऐसा नहीं  है कि  उसके  पास एक ही  क्रेयान का डिब्बा  है ।   लेकिन  उसे नीला रंग बहुत पसंद है और नीले रंग  वाला  क्रेयान ही  नहीं  मिल  रहा  है   ।   नीले रंग  से  आसमान   रंगना हो, चाहे नदी  या फिर  समुद्र  सभीअ जगह  तो वह नीले रंग  का  क्रेयान ही  तो इस्तेमाल करती है ।  उस ने  वह नीले रंग  का  क्रेयान कहीं  रख दिया और  फिर भूल गई है ।  हर बार जब वह कोई चीज  इधर  उधर  रखकर  भूल जाती है  तो उसकी  मम्मी ही उसे  ढूंढ  देती  हैं  या फिर  पापा  नया सेट ले आते हैं ।   उस की इस  लापरवाही  वाली  आदत मे किसी  तरहभी  बदलाव  नही  आ रहा  है ।   लेकिन  आज क्लास में  जब इसी नीले रंग के  क्रेयान के  डिब्बे  में  नहीं  होने के  कारण उसे सब बच्चों  के  सामने  टीचर  जी की डांट पड़ीं थी तब उसे बहुत  खराब  लगा  ।  इसी कारण  वह  स्कूल  से  आकर  नीले रंग  के  क्रेन को ढूढने में  लग गई  थी ।


मम्मी  ने  देखा  कि  चुनमुन स्कूल से  आकर , उससे बगैर  मिले या प्यार  किये ही कुछ  खोजने में  लग गई  थी  ।   मम्मी  को  आश्चर्य  हुआ  कि  ऐसा  तो  कभी  नहीं होता था   ।   चुनमुन स्कूल  से घर  आकर  सबसे  पहले  वह  अपनी  मां  से  अवश्य  मिलती  है ।   मम्मी  कौतुहल-वश चुनमुन के  कमरे  में  गई।  मम्मी  को  वहाँ  देखकर चुनमुन तुरन्त  बोलने लगी  कि  मम्मी  मेरा ब्लू  रंग  का  क्रेयान कहीं  नहीं  मिल  रहा  है  ।   आज  टीचर  जी ने  सबके  सामने मुझे  बहुत  डाँटा  था ।  वो कह रहीं  थीं  कि  तुम  अपना  सब सामान  फेंकती  रहती हो ।    मम्मी  कल ही  तो  मैंने उससे   पेंटिंग  की  थी और  पेटिंग  के  बाद   वह  कहाँ चला  गया  पता  नहीं चल रहा  है इसी लिए  मै अपने  कमरे में  तलाश  कर  रही  हूँ ।   यह  सुनकर  मम्मी  बोली कि  कितनी  बार  तुम्हें  समझाया  है  कि  अपना सब सामान  संभाल  कर रखो और  इस्तेमाल  करने  के बाद  उसे  फिर  अपनी  जगह  पर  रख  दो   लेकिन  तुम  सुनती कहाँ हो।   तुम्हारी  मैम  ने  ठीक ही  तुम्हें  डाँटा  है ।   यह सुनकर  चुनमुन बोली मम्मी  अब मै  समझ गई  हूँ ।   मै अब अपना सब सामान  ठीक  जगह  रखूंगी  और  इस्तेमाल करने  के  बाद  फिर  उसे  फिर  सही  जगह  पर  रखूँगी  ।   मैं  आपसे  प्रामिस करती हूँ ।    नन्ही  चुनमुन की यह बात   सुनकर  मम्मी  मुस्करायी ।  वह बोली,  यह लो तुम्हारा  ब्लू क्रेयान  !  अब  सब  सामान  ठीक  से  रखना ।   सबेरे  तुम्हारे  स्कूल  जाने  के  बाद   काम वाली  आन्टी  ने कूड़े  वाली  बाल्टी  में  से निकाल  कर  यह ब्लू  क्रेयान मुझे  दिया था।    चुनमुन  खुश  हो  गई  और  मम्मी  के  गले  से  लग गई ।



                                 शरद कुमार  श्रीवास्तव 

ब्रजेंद्र नाथ मिश्र की रचना : ओस की बूँदें

ओस की  बूँदें 
 

ओस की बूँदें मोती - सी लगें, 
दूबों पर टिकती हुयी सोती - सी लगें ।    उन्हें उँगलियों से छूना चाहूँ,
 मुठियों में बंद करना चाहूँ।     
रात सितारे आते अम्बर से, 
उन्हें धरा पर बिखरा जाते,
 झोंके पवन के आते, सहलाते,
 पसारते, छितरा   जाते।
  
नहलाई हुयी उन बूंदों में,
छल - छल करती आती भोर,
 पत्तों पर गिरती, चमकाती,
 जीवन - रस से करती सराबोर।  

  
फूलों पर बूंदे ठहरी हुई, छूती, चूमती,
नाचती हैं, टिकती, टप - टप गिरती हुई,
 पराग चुरा ले जाती हैं। 
 आओ उंगली के पोरों में,
 कर लूँ कैद, ले  भागूं, उनके बदले थोड़ी - सी, मोती गगन से मैं मांगू।

     
 ब्रजेंद्र नाथ मिश्र जमशेदपुर

प्रिया देवांगन "प्रियू"  की रचना : डाकिया बाबू

डाकिया बाबू 









भरी दुपहरी डाकिया बाबू , चिठ्ठी लेकर आया ।
 अपनी चिठ्ठी ले लो बाबू , दरवाजे पर चिल्लाया ।
 कभी सुख तो कभी दुख का चिठ्ठी ले कर आता,।
 गर्मी सर्दी बरसातों में  अपना फर्ज निभाता ।
 दूर दूर की चिठ्ठी को वह, अलग अलग है करता ।
 सील मुहर लगा लगाकर, थैले में वह भरता ।
 जब तक बांट न ले वह चिठ्ठी , कभी आराम न करता।
 इस गली से उस गली तक, दिन भर घूमते रहता।









रचना  प्रिया देवांगन "प्रियू"  गोपीबंद पारा पंडरिया  जिला -- कबीरधाम  ( छ ग ) Email --priyadewangan1997@gmail.com

संपादक की डेस्क से


भूकंप
" नाना  की  पिटारी" 06/02/2017 के  अंक  के  प्रकाशित  हो  जाने के  बाद उसी दिन शाम को   उत्तरी भारत  में  भूकंप  के  झटके महसूस  किए  गए  थे  ।  इससंबंध  में  भूकंप  के  बारे  में  जानकारी  देने  के  लिये  हम  दैनिक  जागरण  मे प्रकाशित  जानकारी के  अंश  अपने  नन्हे  मुन्नी को  देने  के  लिए  साभार जस का तस  प्रकाशित  कर रहे हैं

"भूकंप अक्सर भूगर्भीय दोषों और धरती या समुद्र के अंदर होने वाली विभिन्न रासायनिक क्रियाओं के कारण भूकंप आते हैं।हमारी धरती चार परतों यानी इनर कोर, आउटर कोर, मैनटल और क्रस्ट से बनी हुई है।50 किलोमीटर की यह मोटी परत विभिन्न वर्गों में बंटी हुई है, जिन्हें टैक्टोनिक प्लेट्स कहा जाता है।ये टैक्टोनिक प्लेट्स अपनी जगह से हिलती रहती हैं, लेकिन जब ये बहुत ज़्यादा हिलती हैं और इस क्रम में एक प्लेट दूसरी के नीचे आ जाती है, तो भूकंप आता है।50 से 100 किलोमीटर तक की मोटाई की ये परतें लगातार घूमती रहती हैं। इसके नीचे तरल पदार्थ लावा होता है और ये परतें इसी लावे पर तैरती रहती हैं और इनके टकराने से ऊर्जा निकलती है, जिसे भूकंप कहते हैं।"

साभार-  दैनिक  जागरण।



                         शरद कुमार  श्रीवास्तव  

प्रभु दयाल श्रीवास्तव की रचना "अ" अनार का पाठ

अ "अनार का पाठ


"अ" अनार का पाठ सीखले,
 प्यारी चिड़िया रानी |
कविता लिखने ग़ज़लें कहना,
सीख अरी महारानी |


 पढ़ने लिखने से सीखेगी,
 तू भी दुनियाँ दारी |
 अनपढ़ है री अरी चिरैया ,
फिरती मारी- मारी |



बोली चिड़िया अरे अनाड़ी,
मैं बचपन से शायर |
सुना नहीं क्या ! चूँ -चूँ चीं- चीं,
चों -चों का मेरा स्वर |




जब हम सब कोरस में गाते|
सुन्दर मीठे गाने |
पेड़ों के पत्ते लग जाते ,
ताली मधुर बजाने |


पाठ तुम्हें पुस्तक वाले ही ,
बच्चो सदा सुहाते |
अरे !मुझे तो गणित गगन से ,
धरती तक के आते











प्रभु  दयाल श्रीवास्तव
छिन्दवाड़ा
मध्यप्रदेश

महेंद्र देवांगन माटी की रचना : चरणों में शीश झुकाता हूँ




चरणों में शीश झुकाता हूँ 



माता पिता के चरणों में, मैं अपना शीश झुकाता हूँ ।

तन मन सब अर्पण है मेरा , उस पर ही बलि जाता हूँ ।

सागर सी गहराई छुपा है, ममता मयी आंखों में ।

पुण्य प्रताप का तेज छुपा है, उसके दोनों हाथों में।

 कहां जाऊं मैं दर दर फिरे, ओ तो चारों धाम है ।

माता पिता के चरणों में, सौ सौ बार प्रणाम है ।



                        महेन्द्र देवांगन माटी 
                        पंडरिया 
                        छत्तीसगढ़ 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

शरद कुमार श्रीवास्तव की बालकथा: कौवे और मुर्गी की साझा  खेती :



कौवे और मुर्गी की साझा  खेती

बच्चों आप जानते हो कि साझा काम किें से कहते हैं .  जब दो या कई लोग मिल कर एक काम को करें तो साझा काम कहते है.  साझा काम मे पार्टनर लोगो को अपना अपना साझा लाभ / हानि भी मिलता है.

एक बार एक पेड़ पर एक कौवा रहता था .  उस पेड़ के नीचे एक मुर्गी भी अपने बच् के साथरहती थी .  मुर्गी बहुत मेहनती थी और कौवा बहुत चालाक था.  कौवे ने एक बार मुर्गी से कहा ,बहन अगर हम साझा खेती करें तो कितना अच्छा हो.  मुर्गी ने कहा हाँ , मिलजुल कर काम करने मे क्या बुराई है मै तैयार हूँ.  .   कौवा बोला मै थोड़ा बिजी रहता हूँ जब कोईकाम हो तब आप मुझे बुला लीजियेगा.

खेती करने के लिये जमीन की जुताई करने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ जमीन की जुताई करवाओ आकर.  कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने खेतों की जुताई कर ली.

जब जमीन से घास पूस दूर करने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ जमीन की खर पतवार हटवाओ ,   कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने खेतों  से खर पतवार भी दूर कर दी.

अब खेत मे बीज डालने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ जमीन मे बीज डाले जायें.  कौवा फिर बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने खेतों मे बीज भी बो दिये.

पौधे निकल आये तब सिचाई करने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ जमीन की सिंचाई करवाओ आकर.  कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने खेतों की सिंचाई कर ली.

खेतो मे लगे गेहूँ की बालियाँ  काटने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ गेहूँ कटवाओ . तब फिर कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने गेहूँ की कटाई भी कर ली

गेहूँ की बालियाँ  से गेहूँ निकालने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ गेहूँ निकलवाओ . तब फिर कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने गेहूँ की बालियों से गेहूँ भी निकाल  लिया.

गेहूँ पीस कर आटा बनाने का समय आया .   मुर्गी ने आवाज लगाई आओ गेहूँ पिसवाओ . तब फिर कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने गेहूँ पीस कर आटा भी बना लिया.

मुर्गी आटे से पूड़ी बनाने लगी तब फिर उसने आवाज लगाई आओ पूड़ी बनवाओ . तब फिर कौवा बोला ‘ ऊँची डाल पेंर बैठे हैं हलवा पूड़ी खाते है तुम चलो हम आते हैं .’.  मुर्गी ने आटा सान कर पूड़ी भी बना ली

जैसे ही पहली पूडी कड़ाई से निकली कौवा नीचे आगया.  बोला लाओ पूड़ी लाओ बहुत भूख लगी है.  मुर्गी नपे एक डंन्डाफेक कर कौवे को मारा कि काम कुछ नहीं किया पूडी बटाने आ गया.   तुझे कुछ नहीं मिलेगा पूड़ी मैं खाऊंगी और मेरे बच्चे खाएगे .   कौवा रोता हुआ वहाँ से भाग गया.

शरद कुमार श्रीवास्तव 

शादाब आलम का बालगीत : बन्दर को सबक



बन्दर को सबक



मधुमक्खी का छत्ता, बन्दर
ने जब छुआ-गिराया
तो मधुमक्खी सेना ने फिर
उसको सबक सिखाया।
सुनी एक न उसकी, बन्दर
करता रहा चिरौरी
छेद-छेदकर बेचारे की
कर दी नाक फुलौरी

                        शादाब  आलम 


संपादकीय

 संपादकीय

"नाना  की  पत्रिका " के तीन वर्ष पूरे कर लेने पर आप सभी को बधाई देते हुए हमे बहुत हर्ष हो रहा है।   तीन  पूर्व 04/02/2014 को  हमने जब इस पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित किया था तब  सिर्फ यही सोंचा था कि  इन्टरनेट पर छोटे बच्चों के लिए नियमित कोई हिंदी की पत्रिका नहीं है।  अतः एक  छोटे  बच्चों  के  लिए  अंतर्जाल  पर एक  नियमित पत्रिका  प्रकाशित  करना  चाहिए ।   दुनिया  बहुत  तेजी  से  विकास  कर  रही  है  ।   पढाई  लिखाई  में  इलेक्ट्रॉनिक  उपकरणो का  प्रयोग  तेजी से  होने  लगा  है  । स्कूलों  के  नोटिस  ,  होमवर्क  अंतर्जाल  से प्रसारित  होने  लगा है ।   कक्षा  चार - पाँच  के  बच्चे  अपने  प्रोजेक्ट में  इन्टरनेट  का  प्रयोग  कर रहे हैं ।  अब  आने वाली दुनिया एक तरह से पेपरलेस  हो जायेगी।   छोटे बच्चों का साहित्य , नानी दादी की कहानियाँ, फेरीटेल्स ,बालगीत , चुटकुले , पहेलियाँ आदि  बालसाहित्य  को  भी  इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया  में  लाना  होगा ।

यह हमारा  छोटा सा प्रयास  लोगों  का  भरपूर सहयोग  मिल रहा  है  ।   देश  के  विभिन्न  क्षेत्रों से अच्छे  रचनाकारों   की रचनाएँ हमें  प्राप्त  हो रही है ।   चौथे वर्ष  के  प्रारंभ  से ही  हम छोटे बच्चों  को  अच्छी  रचनाएँ  प्रकाशित  करने के लिए  संकल्पित  हैं और  आपसे रचनात्मक  एवं  भावनात्मक  जुडाव   की  अपील  करते  हैं

                                  शरद  कुमार  श्रीवास्तव
                                 संपादक  

जाड़ा भैय्या वापस जाओ : डॉ प्रदीप शुक्ल का बालगीत  



जाड़ा भैय्या वापस जाओ

  
बहुत हो गया जाड़ा भईया 
अब वापस अपने घर जाओ 
कुहरे की चादर समेट कर 
ठंड यहाँ से दूर भगाओ 

ऊब गए हैं घर में बैठे 
मन करता है बाहर खेलूँ 
स्वेटर मफलर और ज़ुराबे 
इनको मैं अब कब तक झेलूँ

अब तो तुमने हद ही कर दी 
बारिश को भी ले आये हो 
सूरज अंकल छुट्टी पर हैं 
बस इससे तुम इतराये हो 

कुछ ही दिन में सूरज अंकल 
घर वापस आने वाले हैं 
चम चम करती धूप सुनहरी 
संग में वो लाने वाले हैं 

लेकिन सुन लो जाड़ा भैय्या 
मुझ से तुम नाराज़ न होना 
दूर चले जाओगे जब तुम 
मुझको फिर आयेगा रोना 

सूरज अंकल बहुत तेज़ हैं 
हम बच्चे उनसे घबराते 
सच में बहुत मज़ा आता है 
वापस जब तुमको हम पाते 

जाड़ा भैय्या अब तुम जाओ 
वापस भी तुम जल्दी आना 
हर बरसों की तरह साथ में 
रंग बिरंगे कपड़े लाना.








डॉ. प्रदीप शुक्ल

अर्चना सिंह जया की रचना: कछुआ और खरगोश

कछुआ और खरगोश
चपल खरगोश वन में दौड़ता भागता,

कछुए को रह-रह छेड़ा करता।

दोनों खेल खेला करते ,

कभी उत्तर तो कभी दक्षिण भागते।


एक दिन होड़ लग गई दोनों में,

दौड़ प्रतियोगिता ठन गई पल में।

मीलों दूर पीपल को माना गंतव्य,

सूर्य उदय से हुआ खेल प्रारंभ।


कछुआ धीमी गति से बढ़ता,

खरगोश उछल-उछल कर चलता।

खरहे की उत्सुकता उसे तीव्र बनाती,

कछुआ बेचारा धैर्य न खोता।

मंद गति से आगे ही बढ़ता,

पलभर भी विश्राम न करता।

खरहे को सूझी होशियारी,

सोचा विश्राम जरा कर लूॅं भाई।

अभी तो मंजिल दूर कहीं है,

कछुआ की गति अति धीमी है।

वृक्ष तले विश्राम मैं कर लूॅं,

पलभर में ही गंतव्य को पा लॅूं। 

अति विश्वास होती नहीं अच्छी,

खरगोश की मति हुई कुछ कच्ची।

कछुआ को तनिक आराम न भाया,

धीमी गति से ही मंजिल को पाया। 

खरगोश को ठंडी छाॅंव था भाया,

‘आराम हराम होता है’ काक ने समझाया।

स्वर काक के सुनकर जागा,

सरपट वो मंजिल को भागा।

देख कछुए को हुआ अचंभित,

गंतव्य पर पहुॅंचा, बिना विलंब के।

खरगोश का घमंड था टूटा,

कछुए ने घैर्य से रेस था जीता।

अधीर न होना तुम पलभर में,

धैर्य को रखना सदा जीवन में।



                                      अर्चना सिंह जया

डॉक्टर अनुपमा गुप्ता की रचना : पहेलियाँ

पहेलियाँ
1
बीच सड़क पर चीता लेटा 
चपटा-मोटा फ़ीता लेटा 
इस पर चढ़ कर जाते पार 
नहीं काटता, करता प्यार।



                        उत्तर- जेबरा-क्रासिंग 

२. 
लोकतंत्र मैं बहुत बड़ा हूँ 
तुम सब का मैं प्यारा देश 
तरह-तरह की बोली मुझमें 
तरह-तरह के मुझमें वेष! 



उत्तर-भारत 
------------------------------ 

३. 
कम ऊँचाई पर मैं उड़ता 
ढेरों कामों से मैं जुड़ता 
मुझे चलाता है रिमोट 
एक तरह का मैं रोबोट! 



उत्तर-ड्रोन 
---------------------------- 
4. 
फूल खिल गए चारों ओर 
चिड़िया चहकेँ,करतीं शोर 
तितली,मधुमक्खी भी तैरें 
मैं ऋतुराज बड़ा चितचोर! 



उत्तर-बसन्त ऋतु 
                           डाक्टर  अनुपमा  गुप्ता