शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

स्मृति (ओरियंटल मैगपायी रोबिन) : शैलेन्द्र तिवारी की स्मृति श्रृंखला से





जून, 2016 में मैनें अपने घर पर पहली मंजिल की बालकनी में एक लकड़ी का बक्सा लगभग 10-12 इन्च बड़ा लगाया , जो कि चिड़ियों को घोसला बनाने के उद्देश्य से लगाया था। बक्सा लगाते ही उसमें गौरेया का आना जाना शुरू हुआ लेकिन बाजी हाथ लगी ओरियंटल मैगपायी रोबिन के जोड़े को। उन्होंने घोसला बनाना शुरू किया। घर के सामने पार्क है और पार्क में नीम के पेड़ है नीम के पेड़ो की छोटी-छोटी डंडियों जिसमें पत्ते लगते हैं को इक्टठा करके नर व मादा रोबिन, बक्से में डालने लगें, घोसला बनने लगा। यह काम दोनों लोग सुबह और शाम को किया करते, क्योंकि जून माह में लखनऊ में दिन भर बहुत गर्मी का मौसम होता है। तीन दिनों की मेहनत के बाद घोसला बनकर तैयार हो गया। चौथे दिन मादा रोबिन ने डिब्बे/घोसले में बैठकर अण्डा दे दिया। 
घर के सामने बिजली का तार व पेड़ है नर राबिन कभी पेड़ में कभी बिजली के तार पर बैठकर इन्तजार करता तथा मादा राबिन अण्डे को सेकती थी। क्योंकि मैं दिनभर आफिस में रहता हूँ तो मुझे दिनभर घर की जानकारी नहीं हो पाती है। एक अवकाश के दिन मैने देखा कि नर राबिन अपने मुह में कीड़ा भर कर लाया और इधर-उधर देखने के बाद सीधे डब्बे/घोसले के अन्दर चला गया। डिब्बे में से बहुत हल्की-हल्की आवाज आ रही थी। मुझे यह समझते देर न लगी कि अण्डे से बच्चे निकले एक-दो दिन हो चुके है। थोड़ी देर बाद मादा चिड़िया भी अपने मुह/चोंच में मकोड़े भर कर लायी और नर के बाहर आ जाने के बाद व घोसले में गयी और शायद बच्चें को खिलाया भी होगा। इस तरह यह सिलसिला चलता रहा।
सात-आठ दिनां के बाद एक दिन मैंने नर चिड़िया (रोबिन) को चिल्लाते हुये सुना तो मै कमरें से जाली वाले दरवाजे के अन्दर से झॉकने लगा, तो देखा कि नन्हा सा बच्चा डिब्बे की खिड़की पर बैठा है। उसके पिता बिजली के तार पर बैठा उसे बाहर उड़ाने का प्रयास करा रहा है। शायद अपनी भाषा में यही कर रहा होगा। कई बार अन्दर बाहर करने के उपरान्त वह बच्चा जोर लागाकर उड़ा और बालकनी की रेलिन्ग पर जा बैठा। इतने में उसकी माँ भी अपनी चोंच में भरकर खाना लायी व उसे खिलाया।
शायद उसको और साहस आ गया वह अपने माता-पिता के निर्देश में उड़कर पेड़ की ओर चला गया। अब वह बडे़ पक्षियों की दृष्टि से दूर था तथा उसे किसी प्रकार का खतरा नहीं था। मेरे घर के ठीक सामने पेड़ होने के कारण दो-तीन दिनां तक मेरी नजर उस पर रहीं। उसके माता-पिता उसे खिलाते और देखते ही देखते वह उड़ने लगा। 
दो तीन दिनां तक वह मुझे नहीं दिखायी दिया न ही उसके माता-पिता दिखायी दिये। एक दिन आफिस जाते समय अपने घर के पीछे पानी की टंकी के पास पेड़ो के झुरमुठ में मुझे उसकी आवाज सुनाई दी मैं रूका तो देखा कि उसका पिता उसे कुछ स्वंय खाने के लिये सिखा रहा था। वह बार-बार पिता की चोंच से खाना चाह रहा था और पिता जमीन से निकाल कर खाना सिखा रहा था। फिर उसने कई बार कोशिश करी और कामयाब हुआ। यह देखकर मै भी अपने कार्यालय की तरफ बढ़ गया। यह निश्चित था कि अब वह अपना जीवन जी सकता है।



                       शैलेन्द्र  तिवारी , सेक्टर  21
                       इन्दिरा  नगर  लखनऊ 

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