राघव बहुत बूढ़ा हो चुका था । उसके लिए क्या शाम और क्या सुबह । उसकी ज़िंदगी तो उसी समय खत्म हो गई थी जब समीर उसके कलेजे का टुकड़ा वापिस आकर उसे अपने साथ ले जाने की झूठी कसम देकर मुंबई चला गया था । राघव हर रोज़ इस आशा के साथ उठता कि एक दन उसका बेटा समीर ज़रूर वापस आएगा । दूसरी तरफ समीर सुध- बुध खोकर मुंबई में मज़े कर रहा था । उसे ना अपने बाबा की चिंता थी और ना ही हमदर्दी । उसे तो किसी प्रकार का पछतावा भी नहीं था ।जीवन की खुशियों की भाँति , धीरे धीरे राघव की आँखों की रोशनी भी चली गई । राघव ने अपने जीवन काल में इतने ज़्यादा कष्ट झेले थे कि आँखो की रोशनी जाने का दुख उसे महसूस ही नहीं हो रहा था ।
अपनी किस्मत को कोसते - कोसते एक दिन राघव ने मुंबई जाने के विचार से , ट्रेन की टिकिट बुक करवाई , उसके मन में सिर्फ एक ही ख्वाहिश बाकी थी कि जीवन के अंतिम दिनों में एक बार समीर से मिल पाए। बुझे मन से राघव ट्रेन में बैठा और पास ही बैठे नवयुवकों से अपने मन की व्यथा, अपने दिल की सारी दबी बातें ,अपने कष्ट बताने लगा । राघव के व्यथित मन की कथा सुनने वाले नवयुवकों में ही बैठे हर्ष का मन द्रवित हो उठा । बिना समय गँवाए वह राघव से बोला- बाबा मैं समीर हूँ, आपका समीर । राघव खुशी से रोने लगा, हर्ष को गले से लगाकर , धीरे से बोला - समीर ........मेरा बेटा समीर। हर्ष ने रोते हुए , खुशी से कहा- हाँ बाबा , मैं समीर , आपका बेटा समीर । एक पिता को हर्ष के रूप में , उसका अपना बेटा समीर मिल गया था ।
- सान्या डावर
कक्षा - 10 एफ
एमिटी इंटरनेशनल स्कूल
सैक्टर-46, गुड़गाँव
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