कोयल ने अपने अंडों को
कौए के घर छोड़ा,
चतुर कोकिला ने कौए के,
अंडों को खुद फोड़ा।
कौवी ने कोयल के सारे,
अंडों को खुद पाला,
कभी न सोचा कोई अंडा,
गोरा है या काला।
कौआ यह सब देख देखकर,
मन ही मन मुस्काया,
बोला मेरी पत्नी ने खुद,
ममता को अपनाया ।
बच्चे तो बच्चे हैं चाहें,
अपने या कोकिल के,
उसकी करनी वह जाने हम,
रहें न क्यों हिलमिल के।
कुछ दिन रहकर उड़ जाएंगे,
बच्चे नील गगन में,
जाने फिर कब तक लौटेंगे,
सूने इस आंगन में।
भेद भाव करना जीवन में,
हमें नहीं आता है,
ऐसा घ्रणित काम धरा पर,
मानव को भाता है।
अपनी - अपनी बोली जग में,
अपना - अपना दुखड़ा,
कोयल कितनी अच्छी लगती,
खोले जब भी मुखड़ा।
वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"
मुरादाबाद/उ.प्र.
9719275453
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