शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

जहां चाह वहां राह वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी की बालकथा

 





बस कर बेटा अब मेरे बस का नहीं है कि तुझे और आगे तक पढ़ा सकूँ।अब तूने बी,ए,पास तो कर लिया।कोई नौकरी तलाश कर कहीं छोटी-मोटी मिल जाए तो,,,,

     बड़ी नौकरी के ख़्वाब देखना

तो हम गरीबों के नसीब में ही नहीं।रिश्वत के आगे काबिलियत को कौन पूछ रहा है बेटा। इस गरीबी ने तो मेरे सभी अरमानों पर पानी फेर दिया।मेरा तो मन  था कि मैं अपने बेटे को थानेदार की वर्दी में सजा-धजा देखूं।लेकिन इस के लिए तो बहुत पैसों और ऊंची सिफारिश की जरूरत होती है।वह हमारे बस का नहीं।

  बेटे को पिता की बात घर कर गई।उसने उसी पल यह प्रतिज्ञा ली कि मैं हर हाल में पिता के सपनों को पूरा करके ही रहूंगा।फिर क्या था उसने इसे अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्धारित करके जी तोड़ मेहनत करनेमें दिन-रात एक कर दिया।

      उसकी मेहनत रंग लाई और  एक वर्ष के कठिन पुलिस प्रशिक्षण के पश्चात थानेदार की वर्दी पहनकर पिता के सपने को साकार कर दिखाया।इसके लिए उसने अपने सामान्य ज्ञान के साथ-साथ शारीरिक गठन को भी विशेष महत्व दिया।छोटी मोटी नौकरी करके पैसा भी कमाया ताकि उद्देश्य पूर्ति की राह में कोई बाधा न आए।

      वर्दी पहनकर वह जब घर पहुंचा तो घर वालों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।पिता ने उसे गले से लगाकर यह कहा ,बेटा यह वर्दी ईश्वर ने तुम्हें देश सेवा के लिए दी है कभी इसको कलंकित मत होने देना।घमंड की परछाँई भी इस पर मत पड़ने देना।मेरी इस बात को सदैव याद रखना।

       "जहां चाह वहां राह"

      ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।

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                वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी

                    मुरादाबाद/उ,प्र,

                    9719275453

                     

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