विगत 27 अगस्त को "नाना की पिटारी " पत्रिका के अस्तित्व को अपनी सोंच मे लानेवाली (प्रणेता )श्रीमती वीना श्रीवास्तव जी की 15वीं पुण्यतिथि थी। इस संदर्भ मे यह पत्रिका दिवंगत वीना श्रीवास्तव जी को श्रद्धापुष्प अर्पित करती है
विगत 27 अगस्त को "नाना की पिटारी " पत्रिका के अस्तित्व को अपनी सोंच मे लानेवाली (प्रणेता )श्रीमती वीना श्रीवास्तव जी की 15वीं पुण्यतिथि थी। इस संदर्भ मे यह पत्रिका दिवंगत वीना श्रीवास्तव जी को श्रद्धापुष्प अर्पित करती है
पद पैसा अब बड़ा हुआ है, दिखा रहे हैं रिश्तों में।
अहम भरा मानव के अंदर, टूट रहे हैं किस्तों में।।
क्या लेकर आये हो जग में, क्या लेकर तुम जाओगे।
समय निकलते देर नहीं है, पीछे तो पछताओगे।।
ज्ञात सभी अच्छे से सब कुछ, फिर भी देते हैं धोखा।
बाहर कितना उछल रहे हैं, अंदर से रहते खोखा।।
बड़े आदमी बनकर बैठे, मुँह में रखते जो ताला।
मानवता का पाठ पढ़ाते, ढोंगी जपते हैं माला।।
छुआछूत अरु भेदभाव का, पैदावार बढ़ाते हैं।
तुच्छ समझते हैं लोगों को, पैरों तले दबाते हैं।
कालचक्र भी घूम रहा है, ये तो वापस आता है।
जैसी करनी वैसी भरनी, जन जन को बतलाता है।।
नीमबीज तुम खुद हो डाले, आम कहाँ से पाओगे।
समय निकलते देर नहीं है, पीछे तो पछताओगे।।
पद पैसे का लालच छोड़ो, धरती पर रह जायेगा।
अच्छा कर्म सभी कर डालो, शिव से यही मिलायेगा।।
प्राण देह में जब तक है जी, तब तक ठोकर खाओगे।
अंत समय में मिले न पानी, तड़प तड़प मर जाओगे।।
रचनाकार
प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
चुन्नू , मुन्नू , गुड्डा, गुड़िया
जा बैठे गाड़ी के अंदर
दरवाजे कर बंद लगाए
लॉक सभी बच्चोंने मिलकर।
घुटन बढ़ी आ गया पसीना
हुआ सांस लेना भी दूभर
भूले घबराहट में सारी
करनी थी जो मस्ती जी भर।
चीख-चीख पीटे सब सीसे
बाहर कुछ आवाज न आई
देखा इधर-उधर बहुतेरा
दिया न कोई भी दिखलाई।
हाथ-पैरभी शिथिल पड़ रहे
छाने लगी अजब बेहोशी
मंद हुईं सारी आवाज़े
पसर गई केवल खामोशी।
दफ्तर जाने को पापा ने
गाड़ी का दरवाज़ा खोला
देख मूर्छित सब बच्चों को
ऊंचे स्वर में सबको बोला।
सारे घर वालों ने मिलकर
उनको बाहर तुरत निकाला
शीघ्र होश में लाने सबके
मुख पर ठंडा पानी डाला।
धीरे - धीरे तब बच्चों ने
अपनी-अपनी आंखें खोलीं
लिपट स्वयं मम्मी-पापा से
गुड़िया रानी जी भर रो लीं।
खेल-खेल में प्यारे बच्चो
नहीं बैठना तुम गाड़ी में
सदा बड़ों के साथ बैठकर
खुशी-खुशी जाना गाड़ी में।
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वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"
9719275453
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कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा.
स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो।
मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।
कालीदास ने कहा :- मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।
स्त्री बोली :- तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।
कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।
स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।
पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?
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(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)
कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।
स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?
(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)
कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।
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स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ?
(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)
कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।
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स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो।
मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।
(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)
वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)
माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।
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कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।
शिक्षा :-
विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है।
साल पचहत्तर की स्वतंत्रता
चलो प्रेम के दीप जलाएँ।
घर घर फहरे आज तिरंगा
अमृत महोत्सव चलो मनाएँ।
आन बान निज शान तिरंगा
कोटि जनों की अभिलाषा है।
भारत का यह गौरव मस्तक
यह भारत की परिभाषा है।
केसरिया मस्तक है इसका
श्वेत हृदय अति सुखदायक है।
हरियाली की चरण पादुका
कोटि जनों का यह नायक है।
गाँधी तिलक सुभाष भगत सिंह
आओ इनके गीत सुनाएँ।
हर घर ऊपर रहे तिरंगा
फर फर फर फर यह फहराए।
हर दुकान हर गली मोहल्ला
लहर लहर नित यह लहराए।
हम सबके यह दिल की धड़कन
कभी न ये अब झुकने पाए।
उज्ज्वल अटल अनादि तिरंगा
जन गण मन का गीत सुनाए।
हम सब मिलकर भारतवासी
पार करेंगे सब बाधाएँ।
यह वंदन है भारत माँ का
यह इस माटी का चंदन है।
भारत माता का यह मस्तक
कोटि जनों का अभिनंदन है।
यह कुरान की आयत जैसा
यह वेदों का दिव्य मंत्र है।
सब धर्मों का संरक्षक यह
यह भारत का प्रजातंत्र है।
बच्चे बूढ़े और युवा सब
आओ मिल कर ध्वज फहराएँ।
साल पचहत्तर की स्वतंत्रता
चलो प्रेम के दीप जलाएँ।
घर घर फहरे आज तिरंगा
अमृत महोत्सव चलो मनाएँ।
सुशील शर्मा
भारत का है मान तिरंगा।
हम सबका अभिमान तिरंगा।
हम बच्चों की शान तिरंगा।
वेदों का गुणगान तिरंगा।
गीता का है ज्ञान तिरंगा।
है कलाम विज्ञान तिरंगा।
है सुभाष की आन तिरंगा।
भगतसिंह बलिदान तिरंगा।
गांधी का ईमान तिरंगा।
कोटि जनों की जान तिरंगा।
सुशील शर्मा
चलो 75वाँ पंद्रह अगस्त धूम से मचाते हैं,
तिरंगे को सर्वोच्च शिखर पर फहराकर,
हम सब अमिट संकल्प एक जुट होकर खाते हैं ,
राष्ट्र ध्वज का मान बढ़ा, एकता का पंचम लहराएँ।
आओ इस अमृतमहोत्सव को सफल बनाएँ,
हर गली, मोहल्ले, घर-आंगन तिरंगा लहराएँ।
अग्निपथ चल व सद्कर्म से विश्व में नाम कमाएँ,
देशभक्ति,शांति-संदेश, प्रेम परिमल चहुॅंदिशा फैलाएँ।
हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती,
हुनर की खासियत यहाँ, जहाँ कई धर्म व जाति।
बलिदान, शांति,खुशी-प्रेम तिरंगा देता है संदेश
परोपकार ही परम धर्म मानवता का धर्म विशेष।
अर्चना सिंह जया
इंदिरापुरम गाजियाबाद
🙏🇮🇳🇮🇳🇮🇳🙏
// ब्रह्मलीन परमधाम प्राप्त साहित्यकार श्री महेन्द्र देवांगन जी "माटी" के द्वितीय पुण्यतिथि 16 अगस्त 2022 पर उनके छत्तीसगढ़ी लेख संग्रह "तीज-तिहार अऊ परम्परा" की समीक्षा- //
समय नहीं है अब सोने का, उठकर आगे आना है।
संघर्षों से लड़ कर हमको, जीवन सफल बनाना है।।
राह हजारों होते हैं जी, जो हमको भटकाते हैं।
पाँव पकड़ कर पीछे खींचे, समझ नहीं हम पाते हैं।।
बहरे मेंढक बन कर हमको, चोटी में चढ़ जाना है।
संघर्षों से लड़ कर हमको, जीवन सफल बनाना है।।
दुनिया वाले कहते सारे, तुम से ना हो पायेगा।
राह कठिन है देखो आगे, दलदल में फँस जायेगा।।
कहते हैं तो कहने देना, कर के हमें दिखाना है।
संघर्षों से लड़ कर हमको, जीवन सफल बनाना है।।
लक्ष्य साध कर चलते हैं जो, वही सफल हो पाते हैं।
चुभे पाँव में काँटे फिर भी, दर्द सहन कर जाते हैं।।
दृढ़ निश्चय कर आगे बढ़ना, करना नहीं बहाना है।
संघर्षों से लड़ कर हमको, जीवन सफल बनाना है।।
मंजिल अपनी मिल जाती है, मात पिता खुश होते हैं।
देख सफल अपने बच्चों को, नींद चैन की सोते हैं।।
यही रीत है दुनिया की तो, हँसना और हंँसाना हैं।
संघर्षों से लड़ कर हमको, जीवन सफल बनाना है।।
लेझम लाठी कुश्तियाँ, वो मल्लों का युद्ध।
खुशियों का त्यौहार है, नागपंचमी शुद्ध।
नागपंचमी शुद्ध,करें सब खूब ठिठोली।
बजते प्यारे ढोल,नचे मस्तों की टोली।
कुश्ती लड़े सुशील,ताल ठोकें सहपाठी।
लड़ें अखाड़े मल्ल,चलायें लेझम लाठी।
भारत श्रेष्ठ सुराष्ट्र में,सब जीवों का मान।
जैव वनस्पति लोग सब,पाते हैं सम्मान।
पाते हैं सम्मान,सभी को अपना जानें।
पंथ धर्म सब नेक,सभी मानवता मानें।
नागपंचमी पर्व,कुश्तियाँ मल्ल महारत।
पूजे जाते नाग,यही है मेरा भारत।
सुशील शर्मा
31 जुलाई 1880 को जन्मे मुंशी प्रेमचंद को सादर नमन
धनपत मुंशी प्रेम थे,सब उनके ही नाम।
सूर्य सत्य साहित्य के,लमही उनका धाम।
ईदगाह का बाल मन,होरी का संसार।
गबन कफ़न सोजे वतन,हैं समाज आधार।
पंच सदा निष्पक्ष हो, परमेश्वर के रूप।
बूढ़ी काकी में लिखा,सामाजिक विद्रूप।
प्रेमचंद की लेखनी,दर्पण सत्य समाज।
प्रासंगिक थी उस समय,प्रासंगिक है आज।
कालजयी लिखते कथा,उपन्यास सम्राट।
प्रेमचंद साहित्य के,बरगद विशद विराट।
देशप्रेम जनहित सरल,सास्वत सत्य सुरेख।
आम आदमी से जुड़े,उनके सारे लेख।
समय सारथी सत्य के,प्रेमचंद सदज्ञान।
कालजयी थी लेखनी,सरस्वती अवदान।
सुशील शर्मा
गडरवाड़ा
थाली जैसें पांव जमाता
हाथी आया है
टहनी जैसी सूंड़ हिलाता
सबको भाया है।
छोटी-छोटी आँखें इसका
मस्तक है ऊँचा
हैं सचमुच केदाँत बताओ
बच्चों ने पूछा।
ढोलक जैसा पेट पूंछ भी
है कितनी मोटी
गन्ने घास-पात खाकर ही
तबियत खुश होती।
चिंघाडों से डरकर बच्चे
दूर भाग जाते
लाख बुलाने सेभी इसके
पास नहीं आते।
कहा महावत ने बच्चों से
बिल्कुल मत डरना
निर्भयहोकर रोज़ सवारी
हाथी की करना।
वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"
9719275453
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1 अगस्त को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्य तिथि थी इस उपलक्ष्य मे हम भारत के इस महान वीर स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धा नमन करते हैं
बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरि) के चिक्कन गांव में 23 जुलाई 1856 को हुआ था। इनके पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे।
अपने परिश्रम के बल पर शाला के मेधावी छात्रों में बाल गंगाधर तिलक की गिनती होती थी। वे पढ़ने के साथ-साथ प्रतिदिन नियमित रूप से व्यायाम भी करते थे, अतः उनका शरीर स्वस्थ और पुष्ट था। 1879 में उन्होंने बी.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। घरवाले और उनके मित्र संबंधी यह आशा कर रहे थे कि तिलक वकालत कर धन कमाएंगे और वंश के गौरव को बढ़ाएंगे, परंतु तिलक ने प्रारंभ से ही जनता की सेवा का व्रत धारण कर लिया था।
परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने अपनी सेवाएं पूर्ण रूप से एक शिक्षण संस्था के निर्माण को दे दीं। सन् 1880 में न्यू इंग्लिश स्कूल और कुछ साल बाद फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना की।
तिलक का यह कथन कि 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा' बहुत प्रसिद्ध हुआ। लोग उन्हें आदर से 'लोकमान्य' नाम से पुकार कर सम्मानित करते थे। उन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है।
लोकमान्य तिलक ने जनजागृति का कार्यक्रम पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव सप्ताह भर मनाना प्रारंभ किया। इन त्योहारों के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंगरेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया। तिलक के क्रांतिकारी कदमों से अंगरेज बौखला गए और उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाकर छ: साल के लिए 'देश निकाला' का दंड दिया और बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया। इस अवधि में तिलक ने गीता का अध्ययन किया और गीता रहस्य नामक भाष्य भी लिखा। तिलक के जेल से छूटने के बाद जब उनका गीता रहस्य प्रकाशित हुआ तो उसका प्रचार-प्रसार आंधी-तूफान की तरह बढ़ा और जनमानस उससे अत्यधिक आंदोलित हुआ।
तिलक ने मराठी में 'मराठा दर्पण व केसरी' नाम से दो दैनिक समाचार पत्र शुरू किए जो जनता में काफी लोकप्रिय हुए। जिसमें तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीनभावना की बहुत आलोचना की।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार को भारतीयों को तुरंत पूर्ण स्वराज देने की मांग की, जिसके फलस्वरूप और केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया।
तिलक अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए भी जाने जाते थे। ऐसे भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी का निधन 1 अगस्त 1920 को मुंबई में हुआ।
पशुपति पाण्डेय
सेवानिवृत्त भारतीय स्टेट बैंक
लखनऊ