विवेक रात को घर आते ही साधना से पूछा- " माँ...! तुमने खाना खा लिया ? बाबू जी कहाँ है ? वे खा लिये ?
घड़ी पर एक नजर डालते हुए साधना बोली - " विवेक ! तू कैसी बात करता है बेटा ? हम लोग तेरे बगैर कभी खाना खाये हैं ?" विवेक बोला– " अगर रात अधिक हो जाए तो खाना खा लिया करो। यूँ इंतजार मत किया करो। " विवेक के स्वर में चिड़चिड़ाहट थी। तभी रघुवीर जी कमरे से बाहर निकले। बोले- " क्यों रे ! तुम्हारे साथ नहीं खायेंगे तो किसके साथ खायेंगे। एक तू ही तो है हमारे आँखों का तारा; दूसरा है ही कौन हमारा ? " साधना बोली– " बेटा, ये ठीक बात नहीं है। जैसे–जैसे तू बड़ा होते जा रहा है, तेरे व्यवहार में रूखापन आते जा रहा है। तू हमेशा गुस्से में रहता है। सीधा मुँह बात नहीं करता। बहुत ही घमंड है तुझे; और पता नहीं किस बात पर ? क्या काम करता है बता ? मैं तेरे ऑफिस जा के बात करती हूँ। "
" माँ ...! मैं कुछ भी काम करूँ ? आप लोग मेरे काम में टांग न अड़ाये तो बेहतर होगा। " बीच में ही विवेक खाना छोड़ कर चला गया।
अगली सुबह विवेक के घर के सामने भीड़ थी। तरह–तरह के चर्चे हो रही थी। तभी अचानक पुलिस की गाड़ी हार्न देेते हुए विवेक के घर के पास आकर खड़ी हुई। विवेक पसीना–पसीना हो गया। वह भागना तो चाहा, पर भाग नहीं पाया। रघुवीर व साधना अपने किस्मत को कोसने लगे, भला किसी को क्या बोलते। आँखें भीग गयीं। आखिरकार पता चल ही गया कि विवेक दो नंबरी काम- जुआ, सट्टा और बहुत कुछ करता है। घर तक को गिरवी रख डाला है। जमीन–जयजाद में भी हाथ मारने की कोशिश की है। विवेक का सारा भंडा फूट गया। दो पुलिस वाले उसे पकड़ कर ले गये। रघुवीर और साधना के आर्द्र स्वर निकल रहे थे- " आखिर हमारी परवरिश में क्या कमी रह गयी...? "
रघुवीर व साधना के विवेक को दिये संस्कार पर प्रश्नचिह्न लग रहा
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