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शनिवार, 16 दिसंबर 2023

नाना जी की कहानियाँ | प्रिन्सेज डॉल की हेयर क्लिप


 

चूहा और बिल्ली

 


चूहा बिल से बाहर आया 

देखा बिल्ली को घबराया


बिल्ली बोली खाऊंगी मैं 

अपनी भूख मिटाउंगी मैं 


चूहा बोला मैं बच्चा हूं 

अभी अकल का मैं कच्चा हूं 


मेरा पीछा छोड़ो तुम अब

अपना रास्ता मोड़ो तुम अब


 बिल्ली बोली ना जाऊंगी

 अभी मार कर तुझे खाऊंगी


 चूहा बोला दिल्ली जाओ

मन भर दूध मलाई खाओ 


बिल्ली बोली बहकाते हो

क्यूं मुझको मूर्ख बनाते हो


चूहा बोला अच्छी हो तुम

प्यारी मेरी मौसी हो तुम


संकट बहुत बड़ा है देखो

पीछे कौन खड़ा है देखो


बिल्ली मुड़कर पीछे आई

तो चूहे ने दौड़ लगाई


बच्चो तुम भी मत घबराना

मिटेगा संकट जुगत लगाना



डॉक्टर राम गोपाल भारतीय 

वरिष्ठ साहित्यकार 

शीलकुंज, मोदीपुरम, मेरठ 

जाड़े की धूप : शरद कुमार श्रीवास्तव

 




सुन मुन्नू सुन गुन्नू सुन बिटिया रानी
जाड़ा आया है जाड़े की धूप सुहानी
आओ बैठे धूप में कहती बूढ़ी नानी
बच्चे बात न सुनते खेलते वो पानी

पहनो मोजे पावों में कहती है नानी
टोपा नहीं पहनते करते ये मनमानी
दौड़ें बच्चे पकड न पाये देखो नानी
नाक सुड़ सुड़ फिर भी खेलते पानी

नानी की बात न माने करते मनमानी
जाड़ा नहीं सताता खूब करें शैतानी
सर सर हवा चले बहे नाक से पानी
बच्चों से जाड़ा हारा सुनिए जी नानी

बच्चों से न बोले जाड़ा बात हमे बतानी
युवा का मीत शीत बात ये सबने मानी
जाड़ा बूढ़ा नहीं छोड़ता मत कर हैरानी
रजाई मे बूढ़ा काँपे हुई यह बात पुरानी



शरद कुमार श्रीवास्तव 
शीलकुंज मोदीपुरम मेरठ 

गौरैया : वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी

 




गौरैयों   के  दो   झुंडों  में,

छिड़ी   बहस   यह  भारी,

बड़े सब्र  से  खाना  होगा,

दाना      बारी        बारी।


दाना  चुगने  में  चालाकी,

जो    भी      दिखलाएगी ,

ज्वार- बाजरा   गेंहूँ   वह ,

भरपेट  न  खा    पाएगी ।


पहले सब  स्नान  करेंगी,

फिर    मिलकर    बैठेंगी,

थोड़ा-थोड़ा खाना लेकर,

ख़ुशी - ख़ुशी    चहकेंगी।


मिट्टी के  कूण्डों  में दाना,

पानी   भरा    हुआ     है,

ज्वार बाजरे का चूरा भी,

छत  पर  धरा  हुआ   है।


भूखे  बच्चे  स्वयं   हमारी,

राह         देखते      होंगे,

कब  तक  आएगी अम्मा,

बस   यही   सोचते  होंगे।


सारी   गौरैयों   ने  अपने,

सुंदर     पँख      हिलाए,

दाना  खाने   सारे   बच्चे,

अपने      पास    बुलाए।


गौरैया  पर बच्चों अपना, 

प्यार      लुटाते     रहना, 

खाने को  दाना पीने को,

पानी      लाते      रहना।


चीं-चीं करके ढेर दुआएं,

तुमको      दे      जाएंगी,

उठो सवेरा हुआ  बताने,

रोज़  - रोज़      आएंगी।

       


     वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

         9719275453

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बुधवार, 6 दिसंबर 2023

बढ़ती ठंड प्रिया देवांगन "प्रियू"



कैसा ये मौसम है आया, कभी धूप सँग होती छाँव।
बैठे बिस्तर में है सारे, नहीं धरा पर रखते पाँव।।

ठिठुर रहे हैं लोग यहाँ पर, किटकिट करते सब के दाँत।
इक दूजे को करे इशारे, नहीं निकलती मुँह से बात।।

तेज सूर्य की किरणें आतीं, मिलती है ऊर्जा भरपूर।।
चौराहे पर बैठे–बैठे, ठंडी को करते हैं दूर।।

स्वेटर मफलर तन को भाये, स्पर्श नहीं करते हैं नीर।
छोटे बच्चे रोते रहते, क्या ठंडी में होती पीर।।

बादल में छुप जाता सूरज, और पवन की बहती धार।
दुबके मानव घर के अंदर, काम काज से माने हार।।

बहुत बढ़ी है ठंड धरा पर, थोड़ा कम कर दो भगवान।
देह बर्फ सी जमती जाती, कहीं निकल ना जाये प्राण।।

प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
Priyadewangan1997@gmail.com

जंगल में शिक्षा प्रिया देवांगन प्रियू

 



बने हेड मास्टर भालू जी, हिंदी अध्यापक हाथी।

बड़े प्रेम से पढ़ते सारे, बन कर रहते सब साथी।।


एक तरफ बैठे हैं पक्षी, एक तरफ चूहा बिल्ली।

जब–जब पुस्तक कुतरे चूहा, उड़ जाती उसकी खिल्ली।।

भीई

देखो उल्लू चश्मा पहने,अनुशासन समझाता है।

नियम तोड़ते गर पशु–पक्षी, उनको सजा सुनाता है।।


शांत बैठते गिल्लू चींटी, प्यार सभी से करते हैं।

शेर दहाड़े जब जोरो से, जंगल वासी डरते हैं।।


नीलगाय अरु बंदर कछुआ, इनकी रहती है टोली।

मैना तोता कोयल बुलबुल, मीठी सी इनकी बोली।।


खेल खेलते हैं आपस में, मिलकर धूम मचाते हैं।

छोटे–छोटे कीट पतंगे, उड़ कर नाच दिखाते हैं।।


मानव जैसा भेद न करते, बनकर रहते हैं सच्चे।

सीखो अच्छी बातें इनसे, बन जाओ अच्छे बच्चे।।




//रचनाकार//

प्रिया देवांगन "प्रियू"

राजिम

जिला - गरियाबंद

छत्तीसगढ़ 


Priyadewangan1997@gmail.com


/ दैवीय जीवंत प्रतिमा का रूप - माँ //एक विचार : लेखिका प्रिया देवांगन "प्रियू"




          नवरात्री लगते ही भक्तगण माँ अम्बे, भवानी , दुर्गा जैसे विभिन्न रूपों की प्रतिमा का अलग–अलग दिन विधि–विधानपूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं। सामर्थ्य अनुसार माँ को श्रृंगार सामग्री, मिठाई व फल-फूल चढ़ाते हैं। पर उस प्रतिमा का क्या ? जो आज अपने ही घर में बेबस और लाचार पड़ी है। मेरा मतलब, अपनी ही जननी से; जिसने हमें जाया है। यह सच है, आज भी कई माएँ वृद्धाश्रम में हैं, जो अपने बहू-बेटे व पोते-पोती की राह ताक रही हैं; और इस आस में बैठी हुई हैं कि उनके बेटे उन्हें लेने जरूर आयेंगे। नवरात्री में लोग जितनी सेवा व पूजा माँ की प्रतिमा का करते हैं, अगर उनकी आधी सेवा भी अपनी माँ के लिये करते , तो आज हर घर एक मंदिर बन जाता।

          माँ अम्बे की प्रतिमा में माँ अम्बे विराजती है, लेकिन एक साक्षात प्रतिमा, जिसे दुनिया माँ के नाम से जानती है; में पूरा ब्रम्हाण्ड विराजमान होता है। सिर्फ मंदिर जाकर दान-दक्षिणा देने से ही माँ अम्बे खुश नहीं होती। अगर कोई मातारानी को खुश रखना चाहते हैं तो सबसे पहले अपनी माँ को खुश रखना सीखें। अगर आप घर की माँ को खुश रखेंगे, तभी मंदिर की माँ खुश होगी।

          माँ अम्बे यह नहीं चाहती कि भक्त नौ दिन तक उनके द्वार ही आये, उनकी पूजा-अर्चना करे। नारियल, फल-फूल और मेवा चढ़ाये। माँ फल और मेवा की भूखी नहीं होती है। माँ तो केवल सच्ची सेवा, निश्छल भक्ति चाहती है। अगर सब मिलकर अपनी माँ को खुश करते, माँ की सेवा करते तो आज शायद पृथ्वी पर यह संकट नहीं आता।

          विचार करें कि आज इस दुनिया में कितनी सारी माँ वृद्धाश्रम में रहती हैं। रोते-बिलखते अपने बच्चों को याद करती हैं।

उस माँ को कभी न तड़पाएँ, जिसने आपका पालन पोषण किया है। अमृत रूपी दुग्ध पान कराया है। आपको अपने हाथों से भोजन कराया है । माँ को भी अपने बच्चों से यही आशा रहती है कि जब वे बूढ़े हो जाएँगे तो ऐसे ही उनके बच्चे उनकी भी सेवा करेंगे। माँ तो माँ होती है न। अपने बच्चों के बारे में कभी गलत नहीं सोच सकतीं। लेकिन माँ को क्या पता कि वे बूढ़े होते ही बोझ बन जाएँगे।

उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ आएँगे।

         हर इंसान को यह समझना बहुत जरूरी है, जिस माँ ने हमें ऊँगली पकड़ के चलना सिखाया, उसे कतई बेसहारा न छोड़ें। वे बहुत खुशनसीब होते हैं, जिनके माँ-बाप उनके साथ हमेशा रहते हैं। अनाथ आश्रम के बच्चे अपने माता-पिता को देखने के लिए तरसते हैं। माता-पिता की कीमत उस गरीब अनाथ बच्चों से पूछें कि माता-पिता क्या होते हैं। बड़ा घर ,बड़ी गाड़ी , बंगला और पैसे रखने वाले ही अमीर नहीं होते। जिस घर में बूढ़े माँ-बाप की सेवा होती है, वह घर एक मंदिर होता है। आज अगर संसार मे माता-पिता को बोझ नहीं समझते , माँ अम्बे की तरह उनकी पूजा-सेवा करते, तो कहीं भी वृद्धाश्रमों की जरूरत नहीं पड़ती।

          आज आप ऐसा करेंगे तो कल आपके बच्चे भी आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करेंगे। यूँ कहें , जैसे करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल। एज़ यू सो, सो यू रीप। बोये पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय। है ना...? जय माता दी।


                                




प्रिया देवांगन "प्रियू"

राजिम

जिला - गरियाबंद

छत्तीसगढ़


शेर और यूनीकार्न की कहानी : नन्हा कहानीकार पार्थ गुप्ता



एक था शेर और एक था यूनिकॉन। दोनों अच्छे दोस्त थे।एक दिन दोनों की लड़ाई हो गई। सब उनका मज़ाक उड़ाते थे,कि इनकी दोस्ती ऐसी है कि यह दोस्त नही दुश्मन है।
और फिर जो उनका मज़ाक उड़ाता था उसको शेर खा जाता था।
सीख (moral)- किसी का मज़ाक नही उड़ाना चाहिए। 

~ पार्थ गुप्ता 
कक्षा-दूसरी
प्रिसीडियम स्कूल 
सेक्टर 40 गुरुग्राम


 

डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, भारत के प्रथम राष्ट्रपति







 प्रारंभिक जीवन


डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जन्मतिथि 3 दिसंबर 1884 थी।

राजेंद्र प्रसाद का जन्मस्थान जीरादेई, सीवान जिला, बिहार, भारत था।

उनके पिता महादेव सहाय श्रीवास्तव थे जो संस्कृत और फ़ारसी भाषा के विद्वान थे। 

उनकी माँ कमलेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थीं जो अपने बेटे को रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाया करती थीं।

राजेंद्र प्रसाद के चार भाई-बहन थे, एक बड़ा भाई महेंद्र प्रसाद और तीन बड़ी बहनें और वह अपने माता-पिता के सबसे छोटे बेटे थे।

जब वह बच्चे थे तभी उनकी माँ की मृत्यु हो गई और उनका पालन-पोषण उनकी बड़ी बहन भगवती देवी ने किया।

राजेंद्र प्रसाद का पूरा नाम डॉ. राजेंद्र प्रसाद है।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद की शिक्षा


जब राजेंद्र प्रसाद पांच साल के थे, तब उनके माता-पिता ने उन्हें एक कुशल मुस्लिम विद्वान मौलवी की फ़ारसी भाषा, हिंदी और अंकगणित की कक्षाओं में दाखिला दिलाया।

अपनी मानक प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्हें छपरा जिला स्कूल में भेज दिया गया।

उसके बाद, वह और उनके बड़े भाई, महेंद्र प्रसाद, दो साल तक अध्ययन करने के लिए पटना में टीके घोष की अकादमी में चले गए।

वह कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में प्रथम आये और उन्हें रुपये की छात्रवृत्ति दी गई। 30 प्रति माह.

1902 में, राजेंद्र प्रसाद ने विज्ञान स्नातक के रूप में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया।

मार्च 1904 में, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफए पास किया और मार्च 1905 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

बाद में, उन्होंने कला के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया और दिसंबर 1907 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी एमए की उपाधि प्राप्त की। ईडन हिंदू हॉस्टल में, उन्होंने अपने भाई के साथ एक कमरा साझा किया।

वह द डॉन सोसाइटी के एक सक्रिय सदस्य और एक समर्पित छात्र होने के साथ-साथ एक नागरिक कार्यकर्ता भी थे।

1906 में पटना कॉलेज के हॉल में, प्रसाद ने बिहारी छात्र सम्मेलन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह भारत का अपनी तरह का पहला संगठन था।

राजेंद्र प्रसाद ने 1915 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कानून विभाग में मास्टर ऑफ लॉ की परीक्षा दी, उसे पास किया और उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। 1937 में, उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।


राजेंद्र प्रसाद परिवार


राजेंद्र प्रसाद का विवाह जून 1896 में 12 वर्ष की कम उम्र में राजवंशी देवी से हुआ था।

उनका एक बेटा मृत्युंजय प्रसाद था जो एक राजनीतिज्ञ था।


एक शिक्षक के रूप में राजेंद्र प्रसाद का करियर


एक शिक्षक के रूप में, राजेंद्र प्रसाद ने विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में काम किया।

अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद वह अंग्रेजी के प्रोफेसर और फिर मुजफ्फरपुर, बिहार में लंगट सिंह कॉलेज के प्रिंसिपल बने। हालाँकि, बाद में उन्होंने कलकत्ता के रिपन कॉलेज में कानूनी पढ़ाई करने के लिए कॉलेज छोड़ दिया।

उन्होंने कोलकाता में कानून की पढ़ाई के दौरान 1909 में कलकत्ता सिटी कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।


एक वकील के रूप में राजेंद्र प्रसाद का करियर

राजेंद्र प्रसाद को 1916 में बिहार और ओडिशा के उच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया था।


1917 में, उन्हें पटना विश्वविद्यालय सीनेट और सिंडिकेट के पहले सदस्यों में से एक के रूप में चुना गया था।


उन्होंने बिहार की प्रसिद्ध रेशम नगरी भागलपुर में वकालत भी की।


अब तक हमने जाना कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद कौन हैं, उनकी प्रारंभिक शिक्षा, उनका परिवार और उनका करियर क्या है। आइए अब हम राजेंद्र प्रसाद के जीवन के प्रमुख अंश पर चर्चा करते हैं।


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में राजेंद्र प्रसाद की भागीदारी

कलकत्ता में अध्ययन के दौरान, राजेंद्र प्रसाद पहली बार 1906 के वार्षिक सत्र के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े, जिसमें उन्होंने एक स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया। वह 1911 में आधिकारिक तौर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए, जब वार्षिक सत्र एक बार फिर कलकत्ता में आयोजित किया गया।


1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। महात्मा गांधी ने उन्हें चंपारण में अपने एक तथ्य-खोज मिशन पर अपने साथ जाने के लिए आमंत्रित किया।


वह महात्मा गांधी के दृढ़ संकल्प, बहादुरी और दृढ़ विश्वास से इतने प्रेरित थे कि जैसे ही 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने असहयोग प्रस्ताव पारित किया, उन्होंने आंदोलन का समर्थन करने के लिए अपने आकर्षक कानूनी पेशे के साथ-साथ विश्वविद्यालय में अपने कर्तव्यों को भी छोड़ दिया।


पश्चिमी शैक्षणिक संस्थानों के बहिष्कार के गांधी के आह्वान के जवाब में, उन्होंने अपने बेटे मृत्युंजय प्रसाद को स्कूल छोड़ने और बिहार विद्यापीठ में दाखिला लेने के लिए कहा, एक संस्था जिसे उन्होंने और उनके सहयोगियों ने पारंपरिक भारतीय मॉडल पर विकसित किया था।


अक्टूबर 1934 में, बॉम्बे सत्र के दौरान उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।


1939 में जब सुभाष चंद्र बोस ने इस्तीफा दिया तो वे दोबारा राष्ट्रपति चुने गये।


8 अगस्त, 1942 को कांग्रेस ने बम्बई में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया, जिसके परिणामस्वरूप कई भारतीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।


राजेंद्र प्रसाद को पकड़कर पटना के सदाकत आश्रम स्थित बांकीपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। लगभग तीन साल जेल में रहने के बाद अंततः उन्हें 15 जून, 1945 को रिहा कर दिया गया।


2 सितंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 12 नामांकित मंत्रियों की अंतरिम सरकार की स्थापना के बाद उन्हें खाद्य और कृषि विभाग सौंपा गया था।


11 दिसम्बर, 1946 को वे संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गये।


जेबी कृपलानी के इस्तीफा देने के बाद 17 नवंबर 1947 को वह तीसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बने।


राजेंद्र प्रसाद की मानवीय सेवाएँ


1914 में बंगाल और बिहार की भीषण बाढ़ के दौरान, उन्होंने राहत प्रयासों में मदद के लिए स्वेच्छा से अपनी सेवाएँ दीं। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पीड़ितों को भोजन और कपड़े उपलब्ध कराए।


15 जनवरी, 1934 को जब बिहार में भूकंप आया, तब राजेंद्र प्रसाद जेल में थे। 17 जनवरी को, उन्होंने बिहार केंद्रीय राहत समिति का गठन करके धन जुटाने का कार्य स्वयं निर्धारित किया। वह राहत कोष संग्रह के प्रभारी थे, जिसकी कुल राशि 38 लाख रुपये से अधिक थी।


1935 में क्वेटा भूकंप के दौरान, ब्रिटिशों द्वारा उन्हें क्षेत्र छोड़ने से रोकने के प्रयासों के बावजूद, उन्होंने पंजाब में क्वेटा सेंट्रल रिलीफ कमेटी की स्थापना की।


राजेंद्र प्रसाद भारत के राष्ट्रपति

भारत की आजादी के ढाई साल बाद 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत के संविधान को मंजूरी दी गई और राजेंद्र प्रसाद को देश का पहला राष्ट्रपति चुना गया।


उन्होंने संविधान के अनुसार भारत के राष्ट्रपति के रूप में किसी भी राजनीतिक दल से स्वतंत्र रूप से कार्य किया।


भारत के राजदूत के रूप में, उन्होंने दुनिया भर में व्यापक रूप से यात्रा की और विदेशी देशों के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये।


1952 और 1957 में, उन्हें लगातार दो बार फिर से चुना गया, जिससे वे भारत के पहले दो-कार्यकाल वाले राष्ट्रपति बने।


उनके शासनकाल के दौरान, राष्ट्रपति भवन में मुगल गार्डन को पहली बार लगभग एक महीने के लिए जनता के लिए खोला गया था, और तब से यह दिल्ली और दुनिया के अन्य हिस्सों में एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण बन गया है।


राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति के संवैधानिक रूप से अनिवार्य पद को पूरा करते हुए, राजनीति से स्वतंत्र रूप से काम किया।


हिंदू कोड बिल के अधिनियमन पर विवाद के बाद, वह राज्य के मामलों में अधिक शामिल हो गए।


राष्ट्रपति के रूप में बारह वर्षों के बाद, उन्होंने 1962 में राष्ट्रपति पद से अपनी सेवानिवृत्ति की घोषणा की।


भारत के राष्ट्रपति का पद त्यागने के बाद वह 14 मई 1962 को बिहार विद्यापीठ परिसर में रहना पसंद करते हुए पटना लौट आये।

राजेंद्र प्रसाद का 28 फरवरी 1963 को 78 वर्ष की आयु में पटना में निधन हो गया।


राजेंद्र प्रसाद की पत्नी की मृत्यु उनसे 4 महीने पहले 9 सितंबर 1962 को हो गई थी।


उन्हें महाप्रयाण घाट, पटना, बिहार, भारत में दफनाया गया था।


उन्हें पटना के राजेंद्र स्मृति संग्रहालय में सम्मानित किया गया है।


पुरस्कार और विद्वत्तापूर्ण विवरण

राजेंद्र प्रसाद को 1962 में देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया।


राजेंद्र प्रसाद एक विद्वान थे जिन्होंने अपने जीवनकाल में 8 पुस्तकें लिखीं।


1922 में चंपारण में सत्याग्रह।


भारत का विभाजन 1946.


आत्मकथा बांकीपुर जेल में तीन साल की जेल अवधि के दौरान लिखी गई डॉ. राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा थी।


महात्मा गांधी और बिहार, 1949 की कुछ यादें।


1954 में 'बापू के कदमों में'.


1960 में आज़ादी के बाद से.


भारतीय शिक्षा.


महात्मा गांधी के चरणों में।


राजेंद्र प्रसाद के बारे में इस जीवनी में, हमने राजेंद्र प्रसाद कौन हैं, राजेंद्र प्रसाद का पूरा नाम, उनका प्रारंभिक जीवन और शिक्षा, उनका परिवार, उनका राजनीतिक करियर, राजेंद्र प्रसाद भारत के राष्ट्रपति थे, उनके पुरस्कार और विद्वतापूर्ण विवरण, और उनकी मृत्यु।


निष्कर्ष

स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे। देश के लिए उनका योगदान और भी व्यापक है. जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री के साथ, वह भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के एक प्रमुख नेता थे। वह उन समर्पित लोगों में से एक थे जिन्होंने मातृभूमि के लिए अधिक लक्ष्य-प्राप्ति की स्वतंत्रता के लिए काम करने के लिए एक आकर्षक करियर छोड़ दिया। स्वतंत्रता के बाद, वह संविधान सभा के अध्यक्ष बने, जिसे देश के संविधान का मसौदा तैयार करने का काम सौंपा गया था। दूसरे शब्दों में कहें तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारतीय गणराज्य के निर्माण में एक प्रमुख व्यक्ति थे।


इसलिए छात्रों को उनकी देशभक्ति और देश के लिए किए गए बलिदान को समझने के लिए राजेंद्र प्रसाद की जीवनी का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है।

शरद कुमार श्रीवास्तव द्वारा

अंतर्जाल  से संकलित