आंधियां कितनी चलें।
हो निराशा दीर्घ तमसा
या कंटकाकीर्ण पथ हो।
हो नियति अब क्रुद्ध मुझसे
या व्यथा व्यापी विरथ हो।
लडूंगा जीवन समर मैं
शत्रु चाहे जितने मिलें।
ग्रीष्म की जलती तपन हो या
हिमाच्छादित पर्वत शिखर।
हो समंदर अतल तल या
सैलाब हो तीखा प्रखर।
चलूँगा में सत्य पथ पर
झूठ चाहे कितने खिलें।
लुटता रहा अपनों से हरदम
रिश्तों को न मरने दिया।
दर्द की स्मित त्वरा पर
नृत्य भी हँस कर किया।
मिलूँगा मैं अडिग अविचल
शूल चाहें जितने मिलें।
सुशील शर्मा
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