इक दूसरे को देख कर, पीछे उसी के भागते।
आगे रहे उनसे सदा, लिप्सा भरे वे जागते।।
राहे बुरे भी क्यों न हो, चलना कभी ना छोड़ते।
रोके अगर मनमीत जी, मुँह को उसी से मोड़ते।।
नीचा दिखाते दूसरों, को क्या जमाना आ गया।
ऊँचा बढ़े रुतबा यहाँ, छल-द्वेष मन में छा गया।।
ना मोह पैसों का रहे, चलते रहे निक बाट को।
जीवन नदी को तैर कर, पा जाय मानव घाट को।।
सोचे नहीं समझे नहीं, बनती जवानी शेर ज्यों।
कटिभाग बूढ़े डोलते, होते वहीं है ढेर क्यों।।
साथी छूटे सच्चे सभी, खिसकी धरा पैरों तले।
साँसे चले अंतिम सफर, माथा धरे दुइ कर मले।।
रचनाकार
प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
Priyadewangan1997@gmail.com
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