(छत्तीसगढ़ी भाषा मे)
बरी, रखिया, कुम्हड़ा, पपीता जेखर-जेखर बरी बनाना हे, तेखर करी ला पीठी मा मिला के फेंटे से ओखर बरी बन जाथे। अउ सिर्फ अदौरी बरी ला पीठी भर के बनाथे । अदौरी बरी बर कुछू जिनिस नइ लागे। उरिद दार के पीठी ला पर्रा मा गोल-गोल,नान-नान बनाये जाथे। ताहन फेर सुपा या पर्रा मा कपड़ा बाँध के हाथ मा थोकिन पानी छू-छू के गोल-गोल मढ़ावत जाथे। अउ सुपा-पर्रा ला उठा के छानही मा टांग देय जाथे। खटिया या जमीन मा जुन्ना लुगरा ला लम्बा बिछा के बरी बनाय जाथे।
आजकल विज्ञान बने तरक्की करत हे ; तेखर फायदा माईलोगन मन उठावत हे। मोबाइल मा गूगल ला सर्च कर के पता लगा लेथे कि कोन दिन बादर आही, अउ कोन दिन बने घाम उगही। ये तो मौसम के बात होगे। घाम म सुखाय बरी ल कउँवा, कुकुर-बिलई, गरुवा ले बचाय ला परथे। बरी ला अच्छा सुखाय बर कम से कम दू दिन बनेच घाम चाही। बरी जतका अच्छा सुखाही, वोतका अच्छा बनथे। येला उलट-पुलट के सुखाये ले बने होथे। सरलग हफ्ता भर म पूरा सुखा जाथे।
सुखाये के बाद माईलोगन के एक नियम हे एक-दूसर घर पहुंँचाए के। माँ हर बेटी बर, सास हर बहू बर, बहिनी-बहिनी बर जोरथे-बाँटथें। येखर ले मया-पिरीत बाढ़थे। दिगर ला लेय-देय गुण बाढ़थे। हमर छत्तीसगढ़ मा सब ले सुग्घर नियम हे कि बेटी-बिहाव के बिदाई के जोरन मा जोरे जाथे। ससुरार मा बहू हर अपन मइके के बरी ल आलू-भाँटा अउ मुनगा संग राँधथे। अपने हर परोसथे। बरी साग ल बने रसा वाले उतारे जाथे, काबर कि बरी ह रसा ल सोंखथे। रसा ह बरी म भींग थे, ता बड़ा गजब के लागथे। अइसना छट्ठी-बरही मा घलो मुनगा अउ रखिया नहीं ते पोंगा बरी ला राँधे जाथे। मुनगा मा विटामिन अउ प्रोटीन जइसे पोषक तत्त्व रहिथें, जेखर से लइकोरी ला ताकत मिलथे। आज घलो हमर गाँव-देहात मा ये परम्परा देखे ला मिलथे।
सँगवारी हो ! हमर छत्तीसगढ़ के सब ले पुराना खान-पान आय बरी बनई अउ रँधई-गढ़ई हा। पहिली जमाना मा हर घर बरी बनय। अब तो दुकान मा घलो बेंचे के शुरू कर दे हे त लोगन मन आलसी घलो होवत जावत हे। कोन जनी अवइया पीढ़ी मन येखर बारे मा जानही के नहीं ? येखर नाम ला तो जानबेच करही; फेर बनाये बर समय नइ रइही; अउ स्वाद ला घलो भूला जाहीं। धीरे-धीरे यहू हर नंदावत जात हे, लेकिन येला बचा के रखना हे।
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लेखिका
प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
Priyadewangan1997@gmail.com
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