एक मैं और एक वो मुझ -सी
मैं श्वेत वो स्याह श्याम - सी
कभी जुदा, कभी मुझ में समाती
बनकर एक अनजाना साथी
खेले मुझ संग आँख- मिचैली
तपती दोपहरी की हमजोली
मैं और मेरी परछांई
एक दिन मैं हँसकर यूँ बोली-
”क्यों तू साथ मेरे है चलती
आगे- पीछे कभी दाएँ- बाएँ
पर छोड़ मुझे कहीं न जाती ?”
हँस कर इठला कर वो बोली-
”तुझ से बना मेरा ये रुप
कैसे रहँू भला तुझ से दूर ?”
साथ चाहे कोई छोड़ दे तेरा
पर मैं साथ निभाऊँगी
जलती धूप में भी संग तेरे
आगे- आगे आऊँगी
कैसे तुझे छोडँू और बनूँ पराई
आखिर हँू तो तेरी परछांई
आखिर हँू तो तेरी परछांई ।।
मधु चौहान
बहुत अच्छा प्रयास मधु 👏👏
जवाब देंहटाएंBahut sundar
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