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बुधवार, 14 नवंबर 2018

मधु चौहान की रचना मेरी परछाईं

                   
      
   एक मैं और एक वो मुझ -सी 
   मैं श्वेत वो स्याह श्याम - सी 
   कभी जुदा, कभी मुझ में समाती
   बनकर एक अनजाना साथी 
   खेले मुझ संग आँख- मिचैली
   तपती दोपहरी की हमजोली
   मैं और मेरी परछांई 
   एक दिन मैं हँसकर यूँ बोली-
   ”क्यों तू साथ मेरे है चलती
   आगे- पीछे कभी दाएँ- बाएँ
   पर छोड़ मुझे कहीं न जाती ?” 
   हँस कर इठला कर वो बोली-
   ”तुझ से बना मेरा ये रुप
   कैसे रहँू भला तुझ से दूर ?”
   साथ चाहे कोई छोड़ दे तेरा 
   पर मैं साथ निभाऊँगी
   जलती धूप में भी संग तेरे
   आगे- आगे आऊँगी
   कैसे तुझे छोडँू और बनूँ पराई
   आखिर हँू तो तेरी परछांई 
   आखिर हँू तो तेरी परछांई ।। 

 
    मधु चौहान

                                  

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