एकादशी उपासी रहतीं
मेरी प्यारी दादी जी
छोटी सी थीं,दुबली-पतली
मेरी प्यारी दादी जी।
सुबह-सवेरे द्वार बुहारें
मेंरी प्यारी दादी जी
कभी न थकतीं,कभी न हारें
ऐसी मेरी दादी जी।
सुनतीं गीता और रामायण
बिना पढ़ी थीं दादी जी
तारों में वे घड़ी निहारें
समझदार थीं दादी जी।
दोपहरी भर सूप चलावें
मेहनतकश थीं दादी जी
कभी दुलारें,आँख तरेरें
ऐसी मेरी दादी जी।
ख़ुद से सारा काम सँभालें
हिम्मत वाली दादी जी
संग समय के कदम मिलातीं
देखीं हमने दादी जी।
कम खा कर ग़म खाना अच्छा
यह समझातीं दादी जी
कभी-कभी नैनों का जल बन
छा जातीं अब दादी जी।
डॉ अनुपमा गुप्ता
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