नन्हीं सी मुनिया बुझा रही पहेली
सर्दी की धूप बन गई है सहेली
मुनिया की आंखों में विस्मय निराला
कौन है जो दुनिया को बांटता उजाला
सूरज की किरणें लगी नई सी नवेली
सर्दी की धूप बन गई है सहेली
किरणों को नन्हें हाथ से पकड़ना चाहे
धूप के रथ पर बैठ नभ में उड़ना चाहे
झुरमुट से झांक रही धूप संग खेली
सर्दी की धूप बन गई है सहेली
पेड़ नाचने लगे हैं फूल मुस्कुराये
हवा को भी पंख लगे पंछी चहचहाये
आंगन में जब से हंसी मुनिया की फैली
सर्दी की धूप बन गई है यह सहेली
डॉ रामगोपाल भारतीय
कवि और ग़ज़लकार
128 शीलकुंज, मोदीपुरम
मेरठ
उत्तर प्रदेश
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