याद आते वो कल वो गुज़रे ज़माने, बचपन के वो दिन सुहाने,
कितना भोला, कितना सच्चा तितली-सा कितना चंचल था मन।
कभी इधर तो कभी उधर, पल-पल लेते थे काया बदल।
बंदर जैसे उछल कूद कर, मगर से झूठे आंसू बहाकर,
बेतुकी हरकतों से तंग कर,बिन बात हंसते-हंसाते जोकर बन।
कागज़ की कश्ती संग, बारिश में भी खोज लेते आनंद।
कंचे, पतंग, गिल्ली डंडे के संग, माटी के खिलौने से घिरा था बचपन।
इंद्रधनुषी रंग थे जिसमें, मासूमियत सुनहरे अवसर से भरा था बचपन।
चेहरे पर थी मधुर मुस्कान संजोए,मां के आंचल में जा कर छुपना,
पिताजी के कांधे पर चढ़ जाना,आंगन में छज्जे से छनती धूप पकड़ना।
दादी जी की ऐनक छिपाना , दादाजी की लाठी से अमिया तोड़ना।
बचपन की यादें बहुत सुहाने, आधी उम्र के पड़ाव पर याद आते वो जमाने।
बालपन होता सदा अनोखा, चिंता-फिक्र को पल में हरते
हरपल जीते खुलकर बच्चे, कल की फिक्र को हँसकर छलते।
अर्चना सिंह जया,गाजियाबाद
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