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सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

अर्चना सिंह जया की रचना: कछुआ और खरगोश

कछुआ और खरगोश
चपल खरगोश वन में दौड़ता भागता,

कछुए को रह-रह छेड़ा करता।

दोनों खेल खेला करते ,

कभी उत्तर तो कभी दक्षिण भागते।


एक दिन होड़ लग गई दोनों में,

दौड़ प्रतियोगिता ठन गई पल में।

मीलों दूर पीपल को माना गंतव्य,

सूर्य उदय से हुआ खेल प्रारंभ।


कछुआ धीमी गति से बढ़ता,

खरगोश उछल-उछल कर चलता।

खरहे की उत्सुकता उसे तीव्र बनाती,

कछुआ बेचारा धैर्य न खोता।

मंद गति से आगे ही बढ़ता,

पलभर भी विश्राम न करता।

खरहे को सूझी होशियारी,

सोचा विश्राम जरा कर लूॅं भाई।

अभी तो मंजिल दूर कहीं है,

कछुआ की गति अति धीमी है।

वृक्ष तले विश्राम मैं कर लूॅं,

पलभर में ही गंतव्य को पा लॅूं। 

अति विश्वास होती नहीं अच्छी,

खरगोश की मति हुई कुछ कच्ची।

कछुआ को तनिक आराम न भाया,

धीमी गति से ही मंजिल को पाया। 

खरगोश को ठंडी छाॅंव था भाया,

‘आराम हराम होता है’ काक ने समझाया।

स्वर काक के सुनकर जागा,

सरपट वो मंजिल को भागा।

देख कछुए को हुआ अचंभित,

गंतव्य पर पहुॅंचा, बिना विलंब के।

खरगोश का घमंड था टूटा,

कछुए ने घैर्य से रेस था जीता।

अधीर न होना तुम पलभर में,

धैर्य को रखना सदा जीवन में।



                                      अर्चना सिंह जया

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