कोयल काली
कूँ कूँ करती कोयल काली
मीठे बोल सुनाती है ।
इस डाली से उस डाली पर
पल भर में उड़ जाती है ।
चैत मास जब आता है
तो फूली नहीं समाती है ,
बैठ आम की डाली पर
अति ख़ुश हो गीत सुनाती है ।
कोयल तो काली कुरूप है
फिर भी सब को भाती है
सच है अच्छे गुण के आगे ,
कुरूपता छिप जाती है !!
कोयल !!
ऊषा कस्तूरिया
नोट : यह कविता। मैं आपको बताना चाहूँगी कि कि लगभग 7/8 दशक पूर्व मुझे मेरी माँ ने सुनाई / सिखाई थी यह कविता । स्मृति - कोश में रह गई यह रचना । मैं नहीं जानती कि इसकी रचयिता मेरी माँ थी अथवा कोई और । मैंने कहीं और इसे पढ़ा नहीं । श उषा कस्तूरिया
बहुत सुंदर कविता बधाई हो
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