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रविवार, 26 फ़रवरी 2017



कोयल काली

कूँ कूँ करती कोयल काली 
मीठे  बोल  सुनाती  है ।
  इस  डाली  से  उस  डाली  पर 
     पल  भर  में  उड़  जाती  है ।
चैत  मास  जब  आता  है 
    तो  फूली  नहीं  समाती  है ,
      बैठ  आम  की  डाली पर 
        अति  ख़ुश  हो  गीत  सुनाती  है ।
कोयल  तो  काली  कुरूप  है 
 फिर  भी  सब  को  भाती  है 
     सच  है  अच्छे  गुण  के  आगे ,
          कुरूपता  छिप  जाती  है !!

कोयल !!


ऊषा कस्तूरिया


नोट :  यह कविता। मैं आपको बताना चाहूँगी कि कि लगभग 7/8 दशक पूर्व मुझे मेरी माँ ने सुनाई / सिखाई थी यह कविता । स्मृति - कोश में रह गई यह रचना । मैं नहीं जानती कि इसकी रचयिता मेरी माँ थी अथवा कोई और । मैंने कहीं और इसे पढ़ा नहीं । श            उषा कस्तूरिया  

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