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शनिवार, 26 मई 2018

मई दिवस (बालगीत) :डॉ प्रदीप शुक्ल





               डॉ  प्रदीप  शुक्ला

मई दिवस पर मजदूरों ने 

डाल दिया है ताला

' वर्कर बी ' सब छुट्टी पर हैं 

शहद भी नहीं निकाला 



दौड़ दौड़ कर वो बेचारे 

कितना तो थक जाते 

लौट के घर में खाने को 

सूखी रोटी ही पाते 



रानी मक्खी रॉयल जेली 

खूब चाव से खाती

दिन पर दिन वो मोटी औ’  

सेठानी होती जाती 



नए उमर के मजदूरों में 

भरा हुआ है गुस्सा 

अभी अभी टी वी पर देखा 

फ्रेंच क्रांति का किस्सा 



आनन फानन सभा बुलाई 

नन्हे मजदूरों ने 

हवा में मुट्ठी लहराई फिर 

शूरों - वीरों ने 



साथ हमारे काम करेगी 

अब से अपनी रानी 

और साथ में ही होगा अब 

सबका खाना पानी 



नन्हे बी वर्कर को सबने 

पानी डाल जगाया 

टूट गया था उसका सपना 

चला काम पर भाया 


डॉ. प्रदीप शुक्ल 

मंजू श्रीवास्तव की बालकथा : चमत्कार





शामू अपनी बैलगाड़ी मे अनाज की बोरियां लादकर बाजार मे बेचने ले जा रहा था |
वह बहुत खुश था कि आज अनाज बेचकर बहुत से पैसे मिलेंगे | उन पैसों से बच्चों व पत्नी के लिये नये कपड़े खरीदूंगा और मिठाई भी लेता जाउँगा |
वह अभी कुछ ही दूर गया होगा कि हल्की हल्की बारिश होने लगी | लेकिन वह अपनी धुन मे चला जा रहा था | अब बारिश तेज होने लगी थी | कच्चा रास्ता था | जगह जगह गड्ढे हो गये थे | आगे एक बड़ा गड्ढा आया | उसमे पानी भरा था| शामू की बैल गाड़ी का पहिया उसमे फंस गया | बहुत कोशिश करने के बाद भी गाड़ी नहीं निकल पाई  |

    क्रोधित होकर वह लगा बैलों को मारने  और जब मारते मारते थक गया तो वह हारकर जमीन पर बैठ गया | हे ईश्वर अब  तू ही बेड़ा पार लगा |    
कुछ देर मे उसे एक आवाज सुनाई  दी | आवाज ने कहा, अरे बुद्धू तू बैलों को क्यूँ मार रहा है | पहले गड्ढे मे   ईंटों के टुकड़े भरो| जमीन बराबर होगी तब आसानी से तुम्हारी गाड़ी गड्ढे से बाहर आ जायगी | और दो चार बोरी हटा दो तो गाड़ी हल्की हो जायगी |

शामू ने वैसा ही किया | गड्ढे मे  ईंटों के टुकड़े भरे|  और गाड़ी पर से बोरी हटाई | 
दोनो बैलों ने जोर मारा और गाड़ी बाहर आ गई |

शामू ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और बोला वाह! चमत्कार हो गया |
आवाज़ ने फिर कहा ये चमत्कार नहीं |  ये तुम्हारा ही किया चमत्कार है |
किसी भी काम को करने मे बुद्धि भी लगानी पड़ती है |

ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करते हैं |


                             मंजू श्रीवास्तव हरिद्वार

बर्लिन और बर्लिन की दीवार : शरद कुमार श्रीवास्तव





एक यात्रा संस्मरण

बर्लिन जर्मनी की राज धानी है अभी  10.11.2014 को इस राष्ट्र ने इसे पश्चिमी जर्मनी और जर्मनी गणराज्य को विभाजित करने वाली दीवार को ढहाने की सिल्वर जुबली अर्थात 25 वी वर्षगांठ मनाई
दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति एक सैनिक सन्धि से हुई जिसमे जर्मनी 1949 मे दो भागो मे बंट गया पश्चमी जर्मिनी अमेरिका द्वारा समर्थित तथा पूर्वी जर्मिनी एक गण राज्य के रूप मे सोवियत रूस द्वारा सम्रथित था दोनो राष्ट्रों मे पूर्वी  जर्मनी से बेहतर काम के अवसरो की तलाश मे भारी पालायन प्रारम्भ हुआ पूर्वी जर्मनी मे गणतन्त्र के खर्चे पर फ्री मे उच्च शिक्षा लेकर पश्चिमी जर्मनी लोग भाग जाते थे.  दूसरी समस्या गुप्तचरी जोरो पर थी और उसपर कोई अंकुश नही लग पा रहा था.  इस पर वर्ष 1962 मे रातोरात पहले कंटीले तार लगाए गये फिर 45 किलोमीटर लम्बी दीवीर खड़ी की गई इसके लिये तत्कालीन सोवियत राष्ट्रपति निकिता खुर्शचेव की स्वीकृति थी .  इस दीवार के बनने से पालायन काफी कम हो गया लेकिन इस दीवार के दोनो पार जर्मनी निवासियों के अपने ही लोग थे जो रातों रात अलग हो गये थे अतः इसके बनने का खूब विरोध हुआ. लोग चोरीछुपे दीवार पार करने की कोशिश मे  पकड़े जाते थे . कुछ मामलों मे जान भी लोगों ने गंवाई.  कभी दीवार से छगांग लगाकर कभी गुब्बारे मे तो कभी सुरगं बनाकर दीवार पार करने की कोशिश होती थी परन्तु सुरक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी पैंतालीस किलोमीटर पर सेना की लगभग 90 चौकियाँ थी.  1989 मे सोवियत राष्ट्र की पकड़ ढीली पड़ी और दीवार के दोनो ओर के राष्ट्रों ने बर्लिन की दीवार उसके बनने के  लगभग 28 वर्षों बाद गिरा दी और वर्ष 1990  मे फिर दो महान जर्मन राष्ट्रों का आपस मे विलय हुआ .  क्या हम अपने दिलों की दीवारे नहीं हटा सकते ?



                                शरद कुमार श्रीवास्तव

शरद कुमार श्रीवास्तव की बालकथा :नन्ही चुनमुन







मम्मी  ने  देखा  कि  चुनमुन स्कूल से  आकर , उससे बगैर  मिले या उससे प्यार  कराए ही कुछ  खोजने में  लग गई है   ।   मम्मी  को  आश्चर्य  हुआ  कि  ऐसा  तो  कभी  नहीं होता था   ।   चुनमुन स्कूल  से घर  आकर  सबसे  पहले  वह  अपनी  मां  से  अवश्य  मिलती  है ।   मम्मी  उत्सुकता -वश चुनमुन के  कमरे  में  गई।  मम्मी  को  वहाँ  देखकर चुनमुन तुरन्त  बोलने लगी  कि  मम्मी  मेरा ब्लू  रंग  का  क्रेयान कहीं  नहीं  मिल  रहा  है  ।   आज  टीचर  जी ने  सबके  सामने मुझे  बहुत  डाँटा  था ।  वो कह रहीं  थीं  कि  तुम  अपना  सब सामान  फेंकती  रहती हो ।    मम्मी  कल ही  तो  मैंने उससे   पेंटिंग  की  थी और  पेटिंग  के  बाद   वह  कहाँ चला  गया  पता  नहीं चल रहा  है इसी लिए मै अपने  कमरे में  तलाश  कर  रही  हूँ ।   

यह  सुनकर  मम्मी  बोली कि  कितनी  बार  तुम्हें  समझाया  है  कि  अपना सब सामान  संभाल  कर रखो और  इस्तेमाल  करने  के बाद  उसे  फिर  अपनी  जगह  पर  रख  दिया  करो  लेकिन  तुम  सुनती कहाँ हो।   तुम्हारी  मैम  ने  ठीक ही  तुम्हें  डाँटा  है ।   यह सुनकर  चुनमुन बोली "मम्मी  अब मै  समझ गई  हूँ ।   मै अब अपना सब सामान  ठीक  जगह  रखूंगी "  ।   मैं  आपसे  प्रामिस करती हूँ ।    नन्ही  चुनमुन की यह बात   सुनकर  मम्मी  मुस्करायी और अपने  कमरे से ला  कर उसके  हाथ मे वही ब्लू क्रेयान रख दिया  और बोलीं  यह लो तुम्हारा  ब्लू क्रेयान  !  अब  सब  सामान  ठीक  से  रखना ।   सबेरे  तुम्हारे  स्कूल  जाने  के  बाद   काम वाली  आन्टी  ने कूड़े  वाली  बाल्टी  में  से निकाल  कर   ब्लू  क्रेयान मुझे  दिया था।    चुनमुन  खुश  हो  गई  और  मम्मी  के  गले  से  लग गई ।  

                        शरद  कुमार श्रीवास्तव 

सुशील शर्मा की लघु कथा : दादाजी का चश्मा






"बिट्टो मेरा चश्मा कहाँ है " दादाजी ने जोर से आवाज़ लगाई 

"पता नहीं दादाजी " बिट्टो ने दादाजी का चश्मा अपनी अलमारी में छुपाते हुए कहा। 

बिट्टो को मालूम है अगर दादाजी को चश्मा दे दिया तो वो अभी पढ़ाने बैठ जायेंगे और न जाने कितनी डांट पड़ेगी तुम से ये नहीं बनता ,तुम से वो नहीं बनता और न जाने क्या क्या। 

"बेटे सुरेश क्या तुमने मेरा चश्मा देखा है " नहीं बाबूजी मुझे नहीं पता सुरेश ने जानबूझ कर कहा जबकि उसने देख लिया था कि चश्मा बिट्टो ने छुपा दिया था। सुरेश को मालूम है अगर अभी चश्मा मिल गया तो बाबूजी सारे हिसाब को बारीकी से देखेंगे दूकान पर कितनी बिक्री हुई कितना खर्च और फिर ढेरो ताने " अभी तक दुकानदारी नहीं सीखी ,उल्लू जैसे बैठे रहते हो और  न जाने क्या क्या। 

"बहु मेरा चश्मा ढूंढ दो " दादाजी ने शालिनी को आवाज़ दी। 

"बाबूजी आप ही देख लो मुझे किचिन में बहुत काम है " शालिनी को पता था कि बाबूजी का चश्मा मिल गया तो अभी किचिन में आकर कई प्रकार के निर्देश मिलने लगेंगे "बहु तुमने सब्जी  को कौन से तेल से फ्राई किया है ,खीर में केसर ऐसे नहीं डालते ,इतने सालों के बाद भी तुम अभी खाना बनाना नहीं सीख पाईं और न जाने क्या क्या। 

"देखो न जाने मेरा चश्मा कहाँ रख दिया  मिल ही नहीं रहा  " दादाजी ने दादी से शिकायत की। 

दरअसल आपका चश्मा बच्चों की स्वतंत्रता के नीचे दबा है उसे दबा ही रहने दो वैसे भी उस चश्मे की अब तुम्हे ज्यादा जरूरत नहीं है "दादी ने मुस्कुराते हुए कहा। 




                           सुशील   शर्मा 


बुधवार, 16 मई 2018

शादाब आलम का बालगीत : आंधी आई







आंधी आई उड़ी हवा में,
भालूजी की चड्ढी ।
छूट गई हाथी के हाथों-
से नोटों की गड्डी ।
गधे लाल का चश्मा टूटा
घुसी आँख में धूल ।
नन्हा चूहा संभल सका ना
उड़, पहुंचा स्कूल ।

                            शादाब  आलम

A poem by Puloma Gupta : Plucked Petals



So much of sorrow,
her heart still hollow,
holding her breath
she faces one more day,
how many more?
she questions in dismay,
like a plucked petal
travelling miles with the breeze,
she, in seek of shade,
unaware of where she could ease.

By
Puloma Gupta, a student of class 10 studying in Amity International school sector-46 Gurugram

मंजू श्रीवास्तव की कहानी : कोशिश करने वालों की हार नहीं होती



                                J K Rowling
बच्चों आज तुम्हें एक ऐसी  महिला के बारे मे बताने जा रही हूँ जिन्होंने असफलताओं के बावजूद दुनिया मे प्रसिद्धि पाई एक लेखिका बनकर|

बच्चों तुमने harry potter पुस्तक जरूर पढ़ी होगी | इसी पुस्तक की लेखिका j.k.Rowling हैं|
    वह बहुत गरीब परिवार से थीं और असफलता के चलते काफी निराश भी | वह एक लोक कल्याण संस्था मे रहतीं थीं |  वहीं पर उन्होंने harry potter पुस्तक लिखनी शुरू की | लेकिन उनकी पुस्तक को कई प्रकाशकों ने प्रकाशित करने से इनकार कर दिया | बहुत निराशा हुई | लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी |
     वह दूसरे प्रकाशकों के पास गईं | आखिर एक प्रकाशक ने उनकी पुस्तक  प्रकाशित करना स्वीकार कर लिया |
     जब वह पुस्तक छप के बाजार मे आई तो एक ही दिन मे बिक्री के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिये और वह दुनिया मे सबसे ज्यादा पढ़ने वाली पुस्तक बन गई |

    आज भी, क्या बुज़ुर्ग क्या बच्चे बड़ी रूचि से यह पुस्तक पढ़ते हैं |
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बच्चों, असफलताओं से कभी घबड़ाना नहीं चाहिये | कोशिश करते रहना चाहिये, सफलता अवश्य मिलेगी | कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती |


                          मंजू श्रीवास्तव हरिद्वार

सुशील शर्मा की रचना : वो छड़ी (संस्मरण )










कक्षा सातवीं के कक्षा शिक्षक श्रीमान रामेश्वर दयाल त्रिवेदी करीब साढे छह फ़ीट ऊँचे पहाड़ जैसा शरीर रौबदार चेहरा गुस्सा में भरा था। अंग्रेजी का कालखंड था पूरी कक्षा के छात्र खड़े थे। मैं कक्षा का कप्तान था सबसे आगे खड़ा सोच रहा था अब क्या होगा मुझे सर की गुस्सा का अंदाजा था। 

"हाँ तो कल के लेसन को कितने छात्र याद करके आये हैं " 'रेज योर हैंड "उनकी गरजती आवाज़ गूंजी। 

"याद रहे वही हाथ उठायें जो याद करके आएं हो "उनकी धमकी भरी आवाज़ से हम सब अंदर से हिल गए। 

करीब आधी कक्षा ने अपने हाथ ऊपर उठाये गुरूजी के चेहरे पर मुस्कान तैर गई बोले "जिन्होंने हाथ उठाये हैं वो बैठ जाएँ "हम सब के जान में जान आई हम सभी मुस्कुरा कर बैठ गए। 

"जो खड़े हैं वो सभी पीछे जाकर नील डाउन हो जाएँ " सभी जो खड़े थे बड़े दुःख के साथ पीछे जाकर अपने घुटनों पर खड़े हो गए। 

हम लोग हँसते हुए उनकी दशा का मज़ा लेने लगे वो लोग हमें बड़े गुस्से में देख रहे थे। 

तभी त्रिवेदी जी की आवाज़ गूंजी "सुशील बेशरम की छड़ी लेकर आओ "

मैं मुस्कुराते हुए जो घुटने लगाए हुए थे उनकी पिटाई की कल्पना करते हुए बेशरम की अच्छी मोटी छड़ी लेकर कक्षा में दाखिल हुआ और पीछे घुटने लगाए सहपाठियों की ओर मुस्करा कर देखा। 

"अब वो खड़े हो जाओ जो पाठ याद करके आये हैं " उनकी इस गरजती आवाज़ ने हम सबकी रूहें काँप गईं। 

जिन्होंने हाथ उठाये थे वो सब खड़े हो गए। 

'हाँ तो सब लोगों ने स्पेलिंग याद की होंगी " उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टी से हम सबको देखा। 

सब ने सहमति में सर हिलाया। 

उस पाठ में एक शब्द साइकोलॉजी था उन्होंने सब से वही शब्द की स्पेलिंग पूछी। 

वह स्पेलिंग किसी से नहीं बनी। 

अब मेरी बारी थी उस शब्द की स्पेलिंग मुझ से भी नहीं बनी। 

उनका तनावयुक्त चेहरा देखकर हम सब की सांसे फूल रहीं थी। 

अच्छा सुशील को छोड़ कर बाकी सब बैठ जाओ। 

अब मुझे तो काटो तो खून नहीं। सभी सहपाठी चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गए 

उसके बाद वो बेशरम की छड़ी बिजली की तेजी से मुझ पर टूट पड़ी करीब साठ से सत्तर छड़ी मेरे उस नन्हे शरीर पर पड़ी दर्द से मैं बिलबिला रहा था किन्तु वो छड़ी रुकने का नाम नहीं ले रही थी आखिर जब छड़ी रुकी तो मेरा पूरा शरीर फूल चुका था। 

हर पहुँचने पर जब पिताजी ने मुझे देखा जब उन्होंने कारन जानना चाहा तो मैंने पूरी कहानी उनको बताई कि एक स्पेलिंग सर ने पूछी थी वो किसी से नहीं बनी लेकिन सर ने सिर्फ मुझे मारा। 

पिताजी ने उल्टा मुझे ही डांटा बोले नहीं पढोगे तो मार तो पड़ेगी। 

अगले दिन मैं सूजा फूला कक्षा में जा रहा था सभी सहपाठी मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे और बेशरम की मोटी छड़ी कह कर चिड़ा रहे थे। 

त्रिवेदी सर कक्षा में आये उन्होंने मुझे देखा लेकिन मैं उदास सा चुपचाप नीची नजर करके बैठा था। 

उन्होंने मेरे सर पर हाथ रख कर कहा "तुम्हे मालूम है तुम क्यों पिटे "

मेरी आँखों से अविरल धारा बाह रही थी मैंने नहीं में सिर हिलाया और कातर निगाहों से प्रश्न किया कि आखिर पूरी कक्षा से प्रश्न नहीं बना लेकिन सजा सिर्फ मुझे ही क्यों।?

"क्योंकि मुझे पूरी अपेक्षा थी कि यह स्पेलिंग कक्षा में सिर्फ तुझ से बनेगी " उन्होंने प्यार से पुचकारते हुए कहा। 

"हर शिक्षक का एक प्रिय शिष्य होता है जिस पर उसको पूरा भरोसा रहता है कि वह उसकी परम्परा को आगे बढ़ाएगा तुम मेरे वही शिष्य हो तुम्हारे अंदर में भविष्य का सुनहरा सपना देख रहा हूँ " उन्होंने पुचकारते हुए मेरे आंसू पोंछे। 

"जब शिष्य से अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो गुरु को साम  दंड भेद से उसे समझाना पड़ता है तुमसे वह स्पेलिंग नहीं बनी तो मेरा विश्वास गुस्से के रूप में फूट कर तुम्हरी पिटाई का कारण बना "

मुझे उस समय उनकी सारी बातें उस समय समझ में नहीं आईं लेकिन जब  समझदार हुआ और उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद मुझे उनकी उस पिटाई स्वरुप आशीर्वाद का अहसास हुआ। मैं आज जो भी हूँ वो उस बेशरम की छड़ी की बदौलत ही हूँ।

                                    सुशील  शर्मा  

रविवार, 6 मई 2018

मंजू श्रीवास्तव की ज्ञान वर्धक रचना : रेड क्रॉस दिवस





बच्चों आज तुम्हें एक महत्वपूर्ण संस्था के विषय में जानकारी दे रही हूँ जिसके बारे मे जानना बहुत जरूरी है |
      रेड क्रॉस एक ऐसी संस्था है जिसका उद्देष्य  घायलों, रोगियों की देख रेख करना है |
        इसकी स्थापना जेनेवा बैंक के कर्मचारी  जीन हेनरी ड्यूनैंट (jean henry dunant) ने जेनेवा में सन् १८६३ मे की थी |
      युद्ध मे घायलों की सेवा करने वाला कोई नहीं था | हेनरी ने बैंक की नौकरी छोड़कर इस संस्था की स्थापना की |
          ८ मई को हेनरी ड्यूनैंट जी का जन्म दिवस होता है | इसलिये विश्व मे उनके जन्म दिवस के उपलक्ष मे रेड क्रॉस दिवस मनाते हैं |
       तुम लोगों ने ऐम्बुलेंस वैन भी देखी होगी | यह वो गाड़ी है जो घायलों व रोगियों को तुरत अस्पताल पहुँचाती है |   गाड़ी के दोनो तरफ लाल  रंग से + का चिन्ह बना रहता है और सामने लाल बत्ती जलती रहती है और हॉर्न बजता रहता है इससे ऐम्बुलेंस होने का पता लगता है और  लोग किनारे हो जाते हैं |
          
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बच्चों, तुम भी कभी किसी को तकलीफ मे देखो, उसकी मदद को हमेशा तैयार रहो ,क्योंकि किसी की सेवा करना मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है |




मंजू श्रीवास्तव हरिद्वार   


सुशील शर्मा की लघुकथा : बिस्कुट और दूध




"जल्दी जल्दी हाथ चलाओ फिरी के पैसे नही आते न मेरे घर में रुपयों का पेड़ है जो तोड़ कर तुम्हे दे दूंगा" रामपुकार ने भरी दोपहर में अपने मकान में काम कर रहे मजदूर सेकहा।

"जी कर तो रहे है बहुत तेज धूप है दो मिनिट सुस्ता तो लें"

धूप में हांफता हुआ रामधन बोला

"अजी का सुस्ता लें ? सुबह से कितना काम किया है। अभी शाम को पैसे गिनाने में धूप नही लगेगी तुम्हें"

रामपुकार ने जोर से मजदूर को डांटा।

पास में ही मजदूर का 4 साल का बालक धूप में खेल रहा था दौड़ कर आया बोला "बाबा मुझे भूख लगी है"

रामधन ने रामपुकार सेठ की ओर देखा लेकिन उसके भाव देखकर उसकी हिम्मत नही हुई कि वह अपने बच्चे के लिए रोटी मांग ले

ऊपर से रामपुकार सेठ की पत्नी की आवाज़ आई 

"सुनो अपने डॉगी के बिस्कुट खत्म हो गए है जाओ ले आओ"

रामपुकार  अपनी पत्नी की आज्ञा मानकर बाजार से बिस्कुट लेने चले गए ।

कुछ देर बाद रामपुकार सेठ की पत्नी कुत्ते को दूध और बिस्कुट खिला रही थी।

मजदूर का भूखा बेटा कातर निगाहों से उन बिस्कुट और दूध को देख रहा था।


सुशील  शर्मा 

प्रिया देवांगन "प्रियू" का बालगीत : तितली रानी










तितली रानी तितली रानी ,

लगती बहुत  प्यारी हो ।

दिन भर बागों में घूमती, 

तुम कितनी न्यारी हो ।

बच्चों के संग खेला करती, 

हाथ कभी न आती हो ।

फूलों का रस चूस चूस कर ,

दिन भर मौज उड़ाती हो ।

रंग बिरंगे पंख तुम्हारे, 

तुम सबसे न्यारी हो ।

तितली रानी तितली रानी 

तुम कितनी प्यारी हो ।





                            प्रिया देवांगन "प्रियू" 

                            पंडरिया  (कवर्धा )

                           छत्तीसगढ़ 

priyadewangan1997@gmail.com


बेबी नाव्या कुमार की बाल कथा : पागल हाथी




एक पागल हाथी था। वह एक गांव  मे अक्सर पहुंच   जाया करता   था  और  उन गांव  वालों के  घरों  को   तोड़  जाया करता था ।  उस गांव में  लोग   उस हाथी के  रोज रोज  परेशान  करने से   तंग हो गए  थे  ।   उन्होंने कई तरीके से  उस हाथी  को  अपने गाँव  से भगाने की  कोशिश की पर सब तरीके  नाकाम  रहे   ढोल  बजाए  गये, मशाल भी  जलाई गई  लेकिन  वह हाथी नहीं  भागा और रोज ही उसके  कारनामे  बढते ही जा रहे  थे  ।   गांव  के  लोगों  ने    एक तरीका  सोंचा कि हाथी को अपने गाँव  से कैसे  भगाए ।   इसके  लिए  उन्होंने  एक  गड्ढा  खोदा  और उसके  ऊपर बहुत   घास फूस  डाल दिया ।   जब वह पागल हाथी जब  आया तब वह उस गड्ढे  में  गिर गया  और बाहर  निकल नहीं  पाया  और  मर गया  ।   इस तरह बुद्धि  के  प्रयोग  से  गांव  वालों  को  एक  पागल हाथी से उत्पात  से छुटकारा  मिल  गया।


                               नाव्या कुमार
                              कक्षा  3
                              सुपुत्री श्रीमती  सुरभि  , श्री  आशीष  कुमार
                              पीतमपुरा  , नई दिल्ली 

शैलेन्द्र तिवारी की जीवन्त स्मृति 1 : गौरैया






मेरे घर की पहली मंजिल के गुसलखाने और लाॅबी के कोने में बीचों-बीच एक छोटा सा छेद मकान बनतेे समय भरने से रह गया था। वह हिस्सा लाॅबी में पड़े जाल के ठीक ऊपर है और वह छेद पानी की टंकी से उतरने वाले पाइप से आधा ढ़का रहता है। उसी छेद में गौरैया की कई पीढ़ियाँ पैदा होकर चली गईं है और आज भी एक जोड़ा गौरैया अपना घोंसला बनाकर रहता हैं। मेरी ये आदत बन चुकी है कि सुबह उठकर एक मुट्ठी चावल व एक नहाने वाले जग से पानी भरकर एक बर्तन में डाल देता हॅूं जिससे थोड़ी ही देर में गौरेयें, फाख्ते, बुलबुल  तथा अन्य चिड़ियें आकर चुग जातीे हैं। दाना चुगने के बाद कई चिड़ियें बर्तन भरे पानी में डुबकी लगाकर नहातीं हैं, नहाने के बाद कुछ गौरेयें दीवारों के कोने में अपने पंखों को सटाकर दीवारों की गर्मी से अपने पंखों को सुखाती है और बाद में अपने-अपनें गंतव्य स्थानों को चली जातीं हैं।

जो जोड़ा गौरैया का मेरे घर में रहता है उसकी चिड़िया तो रात में छेद के अंदर बने घोंसले में रहती है तथा नर लाॅबी में रखे फ्रिज के ऊपर बने पंखा टांगने के लिये लगे हुक में सोता है। प्रातः होते ही लाॅबी में पड़े जाल में बैठकर चीं-चीं करने लगता है वहीं से प्रारम्भ होती  है मेरी दिनचर्या।

मार्च के महिने में एक शाम जब मैं कार्यालय से जल्दी वापस घर गया तो छेद वाले घोंसले से कुछ आवाजें लगातार आती हुई सुनाईं दीं। मैंने शीघ्र ही यह अहसास कर लिया कि एक नई पीढ़ी की शुरूआत हो गई है। तभी नर गौरैया (जिसको हमारी भाषा में चिड्डा भी कहते हैं) अपने चोंच में कुछ भर कर लाया तथा जाल पर बैठकर इंतजार करने लगा जब अन्दर से चिड़िया बाहर निकली तो चिड्डा अन्दर जाकर बच्चों को दाना खिलाने लगा। थोड़ी देर बाद अंधेरा हो गया और दोनों अपने-अपने स्थानों में चले गये तथा थोड़ी ही देर बाद घोंसले से आने वाली आवाजें भी धीमी पड़नें लगीं। पौ फटते ही पुनः वही सिलसिला प्रारम्भ हो गया जैसे ही मैंने चावल के दाने छत में डाले और बर्तन में पानी भरा तुरन्त ही चिड़िया-चिड्डा आकर चावल चुनकर एक-एक कर बारी-बारी से नवजात चूजों को खिलाने लगे। यह सिलसिला लगभग 9-10 दिन लगातार चलता रहा। 

ग्यारहवें दिन प्रातः जब मैं छत पर गया तो देखकर हैरान रह गया जिस दरी में बैठकर मैं प्राणायाम किया करता था उसमें चिड़िया के पंख इधर-उधर पड़े थे और देखते ही अहसास हो गया कि रात में बिल्ली ने किसी तरह से उसे अपना शिकार बना लिया है। उस दिन से चिड्डे के ऊपर दोहरी जिम्मेदारी आ गई और उसे अकेले ही दोनेां बच्चों का पालन-पोषण करना पडा। बच्चे बढ़ रहे थे, उनके शरीर में पंख बड़े हेा गए और अब उनकी खुली हुई चोंचें अक्सर ही नीचे लाॅबी से भी साफ दिखाई देतीं थी। घोंसले का बाहर का हिस्सा थोड़ा नीचा व अंदरी हिस्सा ऊॅचा था। दोनों ही अपने घोसले के अन्दर ही इधर-उधर घूमने भी लगे थे। दिन में दोनों निचले हिस्से में बाहर की ओर आ जाते थे व शाम होते ही अन्दर ऊपरी हिस्से मे छुप जाते थे।

जब वे लगभग पंद्रह दिन के हुए तो मैंने अपने पुत्र से कहा कि एक-दो दिन में ये बच्चे नीचे गिर सकते हैं यदि ये नीचे गिरे तो तुम बाहर का दरवाजा बन्द कर लेना नहीं तो इनको बिल्ली आकर मार सकती है, (ऐसा मैंने अपने पूर्व के अनुभव के आधार पर कहा था क्योंकि मुझे व्यक्तिगत रूप से जानवरों व पक्षियों से लगाव रहा है

पहली उड़ान भरने की कोशिश करी थी तो वे जाल के सींखचों के बीच से नीचे आ गिरते थे फिर एक-दो दिन हमारे घर में अल्मारी के ऊपर या शो-केस के ऊपर या रोशनदान में ही उनके माॅं-बाप उनका पालन पोषण कर उन्हें अपने साथ उड़ा ले जाते थे )। शाम को जब मैं घर पहॅुचा अभी अन्दर गया भी न था कि मेरे बेटे ने मुझे आकर बताया ‘‘ पापा चिड़िया के दो बच्चे नीचे गिर गए हैं और कपड़े टांगने वाले तार पर बैठे हुए हैं‘‘। मैंने तुरन्त ही जाकर बाहर का दरवाजा बन्द किया और छत से जाकर एक लकड़ी का डब्बा (घोंसला), जो मैंने ही बनाया था, लेकर आया। पहले मैंने उन बच्चों के दो-तीन फोटो लिए तत्पष्चात अपने हाथों से उनको उठाकर डिब्बे वाले घोंसले में रख दिया और अपने बेटे से कहा कि कल सुबह इनका पिता आकर इन्हें ले जायेगा। वह आष्चर्य से मेरी तरफ देखता रहा मानो कि उसकी आॅंखों में प्रश्न था कि आपको कैसे मालूम! उसकी छुपी हुई जिज्ञासा को शांत करने के लिये मैंने कहा कि सुबह देख लेना।

पौ फटते ही जाल के ऊपर से चीं-चीे का शोर सुनाई दिया। मैं बिस्तर से उठा और देखता रहा। जाल के ऊपर चिड्डा बैठा शोर कर रहा था कि डिब्बे वाले घोंसले में से बच्चे ने प्रतिक्रिया स्वरूप  जबाब दिया। उसकी आवाज आते ही फौरन चिड्डा वहाॅं पर उतर कर आया, दोनों बच्चे डिब्बे से बाहर आ गये। चिड्डा उड़ कर जालपर बैठ गया साथ ही दोनों बच्चे बारी-बारी से उसके पीछे हो लिए। क्योंकि जाल के तीन ओर दिवारें हैं तथा एक ओर गमले रखे हैं तो बाहर से बड़े मांसाहारी पक्षियों की नजर उस जगह पर नहीे पड़ती है इस कारण वह जगह बच्चों के लिये सुरक्षित है। कुछ देर तक तो चिड्डा अपने मुंह में दाना लाकर उन्हे खिलाता रहा और मैं नहाने के लिये चला गया। जब मैं नहा कर आया तो वे जा चुके थे वे स्वतं़त्र हो चुके थे एक लम्बे कठिन संघर्ष के लिये और अपनी नई दुनिया बसाने के लिये। चिड्डे को भी नहीं मालूम वे कहाॅं गये। चार-पांच दिनों तक वह चिल्ला-चिल्ला कर डिब्बे वाले घोंसले के आस-पास घूमता रहा मानो मुझसे पूछ रहा हो कि क्या तुमने मेरे बच्चों को देखा है। बहुत ही हृदय विदारक दृष्य होता था। उसकी बात का जबाब मेरे पास न था और मेरी समझ में भी नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। मैंने डिब्बे वाले घोंसले को उठाकर छत पर रख दिया। लगभग छः दिवसों तक उसके रोने चिल्लाने को देखकर  एक चिड़िया उसके पास आई मानो वह उसे दुःखी देखकर बर्दाश्त न कर पाई हो और उसे ढाढस बंधाने लगी। वह अपने पुराने साथी को छोड़कर इस दुःखी चिड्डे के साथ आ गई। जब पुराने साथी द्वारा इसका प्रतिरोध किया तो दोनो ने मिलकर उसे भगा दिया। देखते ही देखते पांच छः दिन बीत गये दोनों साथ-साथ रहने लगे और उजड़ा हुआ घोंसला फिर से बनने लगा।

आज दिनांक 28-05-2008 की प्रातः एक बार पुनः धीमी-धीमी चीं-चीं की आवाजें घोंसले से सुनाई देने लगी और चिड़िया व चिड्डा दाना अपनी चोंच में लाकर घोंसले के अन्दर जाने लगे हैं। पूर्व की अपेक्षा कुछ परिवर्तन हुए हैं, एक तो अब चिड़डा दाना बहुत ही कम लेकर बच्चों को खिलाता है और घोंसले के बाहर जाल में ही बैठा रहता है ज्यादातर चिड़िया ही दोनों बच्चों को पाल रही है और दोनो के रात्रि के रहने के स्थानों में भी परिवर्तन हुआ है चिड्डा तो रात में कहीं और  रहता है तथा चिड़िया लाॅबी में रखे फ्रिज के ऊपर बने पंखा टांगने के लिये लगे हुक में सोती है। एक और नई पीढ़ी का शुभारम्भ हुआ।


                                        शैलेन्द्र  तिवारी
                                        सेक्टर  21 इन्द्रानगर
                                        लखनऊ 226016

महेन्द्र देवांगन की हाइकू शैली पर आधारित कविता : बेटी







(1)  भेद ना कर 

      बेटी बेटा समान

       अपना मान ।


(2)  बेटी पढ़ती 

       विकास है गढ़ती

        आगे बढ़ती ।


(3)   चुप रहती 

        सब कुछ सहती 

       सदा हंसती ।


(4)  काम करती 

       कभी नही थकती 

      ख्याल रखती ।


(5)  खुद पढ़ती 

        भाई को भी पढ़ाती

       गाना सुनाती ।


महेन्द्र देवांगन "माटी"

पंडरिया  (कवर्धा )

छत्तीसगढ़ 

वा . नं . 8602407353