मेरे घर की पहली मंजिल के गुसलखाने और लाॅबी के कोने में बीचों-बीच एक छोटा सा छेद मकान बनतेे समय भरने से रह गया था। वह हिस्सा लाॅबी में पड़े जाल के ठीक ऊपर है और वह छेद पानी की टंकी से उतरने वाले पाइप से आधा ढ़का रहता है। उसी छेद में गौरैया की कई पीढ़ियाँ पैदा होकर चली गईं है और आज भी एक जोड़ा गौरैया अपना घोंसला बनाकर रहता हैं। मेरी ये आदत बन चुकी है कि सुबह उठकर एक मुट्ठी चावल व एक नहाने वाले जग से पानी भरकर एक बर्तन में डाल देता हॅूं जिससे थोड़ी ही देर में गौरेयें, फाख्ते, बुलबुल तथा अन्य चिड़ियें आकर चुग जातीे हैं। दाना चुगने के बाद कई चिड़ियें बर्तन भरे पानी में डुबकी लगाकर नहातीं हैं, नहाने के बाद कुछ गौरेयें दीवारों के कोने में अपने पंखों को सटाकर दीवारों की गर्मी से अपने पंखों को सुखाती है और बाद में अपने-अपनें गंतव्य स्थानों को चली जातीं हैं।
जो जोड़ा गौरैया का मेरे घर में रहता है उसकी चिड़िया तो रात में छेद के अंदर बने घोंसले में रहती है तथा नर लाॅबी में रखे फ्रिज के ऊपर बने पंखा टांगने के लिये लगे हुक में सोता है। प्रातः होते ही लाॅबी में पड़े जाल में बैठकर चीं-चीं करने लगता है वहीं से प्रारम्भ होती है मेरी दिनचर्या।
मार्च के महिने में एक शाम जब मैं कार्यालय से जल्दी वापस घर गया तो छेद वाले घोंसले से कुछ आवाजें लगातार आती हुई सुनाईं दीं। मैंने शीघ्र ही यह अहसास कर लिया कि एक नई पीढ़ी की शुरूआत हो गई है। तभी नर गौरैया (जिसको हमारी भाषा में चिड्डा भी कहते हैं) अपने चोंच में कुछ भर कर लाया तथा जाल पर बैठकर इंतजार करने लगा जब अन्दर से चिड़िया बाहर निकली तो चिड्डा अन्दर जाकर बच्चों को दाना खिलाने लगा। थोड़ी देर बाद अंधेरा हो गया और दोनों अपने-अपने स्थानों में चले गये तथा थोड़ी ही देर बाद घोंसले से आने वाली आवाजें भी धीमी पड़नें लगीं। पौ फटते ही पुनः वही सिलसिला प्रारम्भ हो गया जैसे ही मैंने चावल के दाने छत में डाले और बर्तन में पानी भरा तुरन्त ही चिड़िया-चिड्डा आकर चावल चुनकर एक-एक कर बारी-बारी से नवजात चूजों को खिलाने लगे। यह सिलसिला लगभग 9-10 दिन लगातार चलता रहा।
ग्यारहवें दिन प्रातः जब मैं छत पर गया तो देखकर हैरान रह गया जिस दरी में बैठकर मैं प्राणायाम किया करता था उसमें चिड़िया के पंख इधर-उधर पड़े थे और देखते ही अहसास हो गया कि रात में बिल्ली ने किसी तरह से उसे अपना शिकार बना लिया है। उस दिन से चिड्डे के ऊपर दोहरी जिम्मेदारी आ गई और उसे अकेले ही दोनेां बच्चों का पालन-पोषण करना पडा। बच्चे बढ़ रहे थे, उनके शरीर में पंख बड़े हेा गए और अब उनकी खुली हुई चोंचें अक्सर ही नीचे लाॅबी से भी साफ दिखाई देतीं थी। घोंसले का बाहर का हिस्सा थोड़ा नीचा व अंदरी हिस्सा ऊॅचा था। दोनों ही अपने घोसले के अन्दर ही इधर-उधर घूमने भी लगे थे। दिन में दोनों निचले हिस्से में बाहर की ओर आ जाते थे व शाम होते ही अन्दर ऊपरी हिस्से मे छुप जाते थे।
जब वे लगभग पंद्रह दिन के हुए तो मैंने अपने पुत्र से कहा कि एक-दो दिन में ये बच्चे नीचे गिर सकते हैं यदि ये नीचे गिरे तो तुम बाहर का दरवाजा बन्द कर लेना नहीं तो इनको बिल्ली आकर मार सकती है, (ऐसा मैंने अपने पूर्व के अनुभव के आधार पर कहा था क्योंकि मुझे व्यक्तिगत रूप से जानवरों व पक्षियों से लगाव रहा है
पहली उड़ान भरने की कोशिश करी थी तो वे जाल के सींखचों के बीच से नीचे आ गिरते थे फिर एक-दो दिन हमारे घर में अल्मारी के ऊपर या शो-केस के ऊपर या रोशनदान में ही उनके माॅं-बाप उनका पालन पोषण कर उन्हें अपने साथ उड़ा ले जाते थे )। शाम को जब मैं घर पहॅुचा अभी अन्दर गया भी न था कि मेरे बेटे ने मुझे आकर बताया ‘‘ पापा चिड़िया के दो बच्चे नीचे गिर गए हैं और कपड़े टांगने वाले तार पर बैठे हुए हैं‘‘। मैंने तुरन्त ही जाकर बाहर का दरवाजा बन्द किया और छत से जाकर एक लकड़ी का डब्बा (घोंसला), जो मैंने ही बनाया था, लेकर आया। पहले मैंने उन बच्चों के दो-तीन फोटो लिए तत्पष्चात अपने हाथों से उनको उठाकर डिब्बे वाले घोंसले में रख दिया और अपने बेटे से कहा कि कल सुबह इनका पिता आकर इन्हें ले जायेगा। वह आष्चर्य से मेरी तरफ देखता रहा मानो कि उसकी आॅंखों में प्रश्न था कि आपको कैसे मालूम! उसकी छुपी हुई जिज्ञासा को शांत करने के लिये मैंने कहा कि सुबह देख लेना।
पौ फटते ही जाल के ऊपर से चीं-चीे का शोर सुनाई दिया। मैं बिस्तर से उठा और देखता रहा। जाल के ऊपर चिड्डा बैठा शोर कर रहा था कि डिब्बे वाले घोंसले में से बच्चे ने प्रतिक्रिया स्वरूप जबाब दिया। उसकी आवाज आते ही फौरन चिड्डा वहाॅं पर उतर कर आया, दोनों बच्चे डिब्बे से बाहर आ गये। चिड्डा उड़ कर जालपर बैठ गया साथ ही दोनों बच्चे बारी-बारी से उसके पीछे हो लिए। क्योंकि जाल के तीन ओर दिवारें हैं तथा एक ओर गमले रखे हैं तो बाहर से बड़े मांसाहारी पक्षियों की नजर उस जगह पर नहीे पड़ती है इस कारण वह जगह बच्चों के लिये सुरक्षित है। कुछ देर तक तो चिड्डा अपने मुंह में दाना लाकर उन्हे खिलाता रहा और मैं नहाने के लिये चला गया। जब मैं नहा कर आया तो वे जा चुके थे वे स्वतं़त्र हो चुके थे एक लम्बे कठिन संघर्ष के लिये और अपनी नई दुनिया बसाने के लिये। चिड्डे को भी नहीं मालूम वे कहाॅं गये। चार-पांच दिनों तक वह चिल्ला-चिल्ला कर डिब्बे वाले घोंसले के आस-पास घूमता रहा मानो मुझसे पूछ रहा हो कि क्या तुमने मेरे बच्चों को देखा है। बहुत ही हृदय विदारक दृष्य होता था। उसकी बात का जबाब मेरे पास न था और मेरी समझ में भी नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। मैंने डिब्बे वाले घोंसले को उठाकर छत पर रख दिया। लगभग छः दिवसों तक उसके रोने चिल्लाने को देखकर एक चिड़िया उसके पास आई मानो वह उसे दुःखी देखकर बर्दाश्त न कर पाई हो और उसे ढाढस बंधाने लगी। वह अपने पुराने साथी को छोड़कर इस दुःखी चिड्डे के साथ आ गई। जब पुराने साथी द्वारा इसका प्रतिरोध किया तो दोनो ने मिलकर उसे भगा दिया। देखते ही देखते पांच छः दिन बीत गये दोनों साथ-साथ रहने लगे और उजड़ा हुआ घोंसला फिर से बनने लगा।
आज दिनांक 28-05-2008 की प्रातः एक बार पुनः धीमी-धीमी चीं-चीं की आवाजें घोंसले से सुनाई देने लगी और चिड़िया व चिड्डा दाना अपनी चोंच में लाकर घोंसले के अन्दर जाने लगे हैं। पूर्व की अपेक्षा कुछ परिवर्तन हुए हैं, एक तो अब चिड़डा दाना बहुत ही कम लेकर बच्चों को खिलाता है और घोंसले के बाहर जाल में ही बैठा रहता है ज्यादातर चिड़िया ही दोनों बच्चों को पाल रही है और दोनो के रात्रि के रहने के स्थानों में भी परिवर्तन हुआ है चिड्डा तो रात में कहीं और रहता है तथा चिड़िया लाॅबी में रखे फ्रिज के ऊपर बने पंखा टांगने के लिये लगे हुक में सोती है। एक और नई पीढ़ी का शुभारम्भ हुआ।
शैलेन्द्र तिवारी
सेक्टर 21 इन्द्रानगर
लखनऊ 226016
धन्यवाद सर।
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