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सोमवार, 26 जुलाई 2021

कागज़ की नाव: शरद कुमार श्रीवास्तव की बालकथा

 



जय गर्मी से परेशान  हो चला था ।  वैसे तो बच्चो को जाड़ा गर्मी बरसात के मौसम, सब एक समान लगते है परन्तु  कोरोना के कारण  मम्मी पापा  घर से निकलने  नही  देते है ।  वे घर पर रहकर ऑनलाइन  काम करते रहते थे जिस की वजह  से जय घर पर ही रहता है। वह बाहर खेलने नहीं जा पाता है ।     लाॅकडाउन  के कारण बच्चो का भी बाहर खेलना  कूदना  मना कर  रखा था ।   छोटे से घर मे जय को हमेशा बंधकर  रहना पड रहा था ।   वह कितनी  ड्राइंग  बनाए,  कितना पढाई  करे और  कितना टी वी देखे ।

पर  इधर  कोरोना का संकट थोडा बहुत  कम हो चला था इसलिए  सरकार  की तरफ  से थोड़ा ढील  थी ।   फिर  भी मम्मी की तरफ से अभी रोक-टोक  कम नहीं हुई थी।  क्योंकि बाहर तो  लोग बिना मास्क के घूम रहे थे ।   मम्मी को डर था किसी मास्क विहीन इंसान  के द्वारा जय संक्रमित  न हो जाय । अतः जय को घर मे रहना पड़ता था  ।    

उस दिन  आषाढ़  के महीने मे ही आकाश  मे काले भूरे बादल  घिर आये ।  मौसम सुहावना  हो गया ।   जय का मन हुआ  कि बाहर  निकल  कर  खूब  नाचे झूमे मौसम  का आनन्द  उठाए  ।   वह अपने पुराने होमवर्क  के रजिस्टर  से दो चार  पन्ने फाड़कर  ले आया और उनको फाड़कर  छोटी  छोटी कागज की नाव  बनाने की कोशिश  करने लगा।   उसे यह करता  देख उसके पापा मे शायद अपने बचपन  की यादें ताजा हो गई  ।   वे भी  उसके साथ  शामिल  हो गये  अखबार  और  पुराने पन्नो की नावें बनने लगीं ।    इत्तेफाक से उसी समय झमाझम  पानी बरसने लगा ।  घर  के सामने की सड़क  पर खूब  पानी भर गया ।   लोगों को भले ही घर से बाहर  निकलने  मे कष्ट  भले हो रहा हो, लेकिन  पिता पुत्र  की यह जोड़ी अपनी अपनी कागज  की नावें  चलाने मे मस्त  हो गई 



शरद कुमार श्रीवास्तव 

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