कल शुक्रवार (15/10/2021) की शाम डूबते सूरज की रोशनी के बीच रावण जल गया। एक नहीं तमाम शहरों, कस्बों और गांवों में जला। कुछ ने इसे असत्य पर सत्य की जीत कहा तो किसी ने इसे अधर्म पर धर्म की विजय माना। हर बार की तरह कोई इसे अनीति पर नीति का वर्चस्व कह रहा था तो कोई इसे बुराई का अंत कह रहा था। हर जगह मेले में मची रेलम पेल। रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतलों से आती पटाखों के धमाके की तेज आवाज और रोशनी। इन सबके बीच यह सब सच लगने लगा। अचानक से सीना तान कर चलते लोगों को देख लगा जैसे वाकई रामराज्य आ गया। मेले में बिकते शोर शराबा फैलाने वाले सस्ते से खिलौने, चाट पकौड़ी और मूंगफली के ठेलों को देख लगा चलो आखिर इनके भी दिन बहुर गये। वरना ब्रांडेड टॉयज और चाइनीज डिशेज के बीच कौन पूछता है इन चवन्नी छाप भोंपूओं और गोलगप्पों को।
सड़क पर रेंगती भीड़ इस बात का अहसास तो करा रही थी कि तंग जगहों पर चलना अपने आप में प्रॉब्लम है। लेकिन जब बेलौस बतियाते चल रही लड़कियों को देख कोई अनायास ही धकियाने पर उतर आये या फब्ती कसे तो इस बात को समझने में भी देर नहीं लगती कि अभी हम जिस रावण की देह जला कर आये हैं उसकी रूह अभी जिंदा है। राह गुजर रही महिलाओं को एक्स रे के इरादे से घूरती निगाहें इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं कि आसुरी प्रवृत्ति की आत्मा अब भी कायम है।
ये तो एक ऐसे मनोवृत्ति की चर्चा है जिसे साइकोलॉजी ने जेहनी तौर पर बीमारी करार दिया है लेकिन आप उसे क्या कहेंगे जिसे दूसरों को संताप देकर संतोष हासिल होता हो? विज्ञान इसे किस नजरिये से देखता है यह दीगर है लेकिन आसपास बिखरे सैडिस्ट लोगों के हुजूम ने हर दूसरे को जेहन से लेकर जिस्मानी तौर पर बीमार बना कर रख दिया है।
इसमें कोई शक नहीं कि ये प्रवृत्ति रावणी है लेकिन सभ्य कहे जाने वाले आज के समाज में तमाम ऐसे लोग हैं जिनकी वृत्ति भी रावणी है। अरहर की दाल को महंगी के दलदल में पहुंचाने वाले जमाखोर आज के रावण हैं। सूखी रोटी और प्याज से पेट भरने वालों के निवाले में सेंध लगाने वाले दशानन हैं। गरीबों के राशन में घटतौली करने वाले, सूद पर पैसा देकर एक इन्सानी जिंदगी को हमेशा के लिए कर्ज की गठरी बना देने वाले, बच्चों और महिलाओं का शोषण करने वाले आज के
लंकाधिपति हैं। अपने आसपास बिखरी तमाम तरह की विसंगतियों पर अगर आप गौर फरमाएं तो उसमें आपको रावण का अक्स दिखायी देगा। सरकारी से लेकर प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों के पीछे जीभ लपलपाते घूमते दलालों के मकड़जाल इस बात की तस्दीक करते हैं कि इन्सानों की दुनिया पर शैतान का ही राज है।
रावण और उसकी प्रवृत्ति की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। ये वो रक्तबीज हैं जो हर कतरे के साथ एक लम्बे सिलसिले को पैदा कर जाते हैं। शायद ये वक्त इन रक्तबीजों के वजूद के नहीं, उसके पैदा होने की वजहों के पड़ताल का है। फौरी तौर पर देखें तो बंद मुट्ठी की अंगुलियां खुद अपनी ओर ही मुड़ती दिखती हैं। ये एक ऐसा आधा सच है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता। अगर हमारी पेरेंटिंग अच्छी होती तो ईव टीजिंग से लेकर रोड साइड पर होने वाले हिट एंड रन के केसेज इतनी तादाद में न दिखते। हम ’संतोषं परमं सुखम’ की सोच रखते तो मुनाफा कमाने की दौड़ में जमाखोरी जैसा अपराध नहीं करते। सूदखोरी जैसा पाशविक पेशा न अपनाते। बच्चों का शोषण करने के बजाय उन्हें स्कूल का रास्ता दिखाते। लेकिन कड़वा सच ये है कि हम ऐसा कुछ करते ही नहीं।
हमारे अंदर ऐसी सोच भी नहीं आती कि आसपास बिखरी चीजों को समेट कर उसे एक आकार प्रकार दें। हम निगेटिविटी के एक ऐसे डेलिमा में जी रहे हैं जहां से सिर्फ भयावह अंधेरा ही दिखता है। सकारात्मकता का स्रोत जब सूख जाए तो उससे कुछ उम्मीद करना भी बेमानी सा लगता है। लेकिन ये है गलत। इस माइंड सेट को बदलना होगा। यह समझना होगा कि हर साल दशहरे पर पुतला दहन से ही रावण नहीं मरेगा। उसके वंश के सर्वनाश के लिए हमें उस सोच को जलाना होगा जो आसुरी ताकतों का जनक है। आखिर में अचानक से जेहन में आयीं दो लाइनें आपसे शेयर करना चाहूंगा...
नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही...
इस उम्मीद के साथ कि एक न एक दिन रावण जरूर मरेगा।
डा. पशुपति पाण्डेय
लखनऊ
आप द्वारा रोचक शैली में आज के समाज में व्याप्त कुरीतियों को, उनको दूर करने का उपाय (अच्छे संस्कार) देकर हम समाज से, जनमानस से रावणी वृत्ति को दूर करने में समर्थ हो सकते हैं। आप के इस लेख से समाज को जागृत एंव आत्मावलोकन का अवसर मिलेगा जिसके परिणाम सुखद होगे, ऐसा मेरा विश्वास है। हार्दिक शुभकामनाएं।
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