गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं
हमारी सोच में
हमारे संस्कारों में
हमारे आचार व्यवहारों में
हमारे प्रतिकारों में
गाँधी धीरे धीरे मर रहें हैं।
गाँधी 1948 में नहीं मरे
जब एक गोली
समा गई थी उनके ह्रदय में
वो गाँधी के मरने की शुरुआत थी
गाँधी कोई शरीर नहीं था
जो एक गोली से मर जाता
गाँधी एक विशाल विस्तृत आसमान है
जिसे हम सब मार रहें है हरदिन।
हम दो अक्टूबर को
गाँधी की प्रतिमाओं को पोंछते हैं
माल्यार्पण करते हैं
गांधीवाद ,सफाई ,अहिंसा पर
होते हैं खूब भाषण
शपथ भी ली जातीं हैं।
और फिर रेप होते हैं
हत्याएँ होतीं हैं।
दीना माँझी ढोता है
पत्नी का शव काँधे पर।
नेमीचंद भूख से मर जाता है।
एक तरफ चमकते कान्वेंट है
दूसरी ओर फटी टाटपट्टी पर बैठे
सरकारी स्कूल के गरीब बच्चे हैं।
एक तरफ लाल झंडे
एक तरफ हरे झंडे
एक तरफ भगवा झंडे
लहराते नीले झंडे
बीच में हाँफता तिरंगा।
राजनीति की गंदी बिसात पर
हम तिल तिल कर
मारते जाते हैं गाँधी को।
अभी भी वक्त है।
अंतिम सांसे ले रहे
गाँधी के आदर्शों को
अगर देना है संजीवनी
तो राष्ट्रनेताओं को छोड़नी होगी
स्वार्थपरक राजनीति
राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध
होना होगा एकजुट।
कटटरपंथियों को देनी होगी मात।
हमें ध्यान देना होगा
स्वच्छता,अहिंसा और सामुदायिक सेवा पर।
बनाये रखनी होगी सांप्रदायिक एकता।
अस्पृश्यता को करना होगा दूर।
मातृ शक्ति का करना होगा
सशक्तिकरण।
जब कोई आम आदमी
विकसित होता है
तो गाँधीजी उस विकास में
जीवित होते हैं।
जब कोई दलित ऊँचाइयों
पर जाता है
तब गांधीजी मुस्कुराते हैं।
जब हेमादास भारत के लिए
पदक लाती है
गांधीजी विस्तृत होते हैं
गाँधीजी भले ही भारत में
रामराज्य का पूर्ण स्थापन नहीं कर सके।
भले ही वो मनुष्य को बुराइयों
से दूर न कर सके।
किन्तु युगों युगों तक उनके विचार
प्रासंगिक रहेंगे।
गाँधी मानवता के प्रतीक हैं।
गाँधी श्रद्धा नहीं सन्दर्भ हैं।
गाँधी व्यक्ति नहीं भारत देश हैं।
गाँधी प्रेरणा नहीं आत्मा हैं।
सुनो
मत कत्ल करो अपनी आत्मा का
मत मारो गाँधी को।
डॉक्टर सुशील शर्मा
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