एक अनोखा शिष्य था ऐसा,
परम आज्ञाकारी व व्यवहारिक,
मोहक, दया रूप था उसका।
गुरुकुल में शिक्षा अध्यापन कर,
सेवा भाव सदा मन में रख,
परोपकार था वो करता।
माता पिता व गुरुजनों की सेवा,
आरुणि का धर्म था सच्चा।
एक संध्या गुरुकुल से विदा ले,
सभी विद्यार्थी गृह की ओर थे चले।
बादल घिर कर आने थे लगे,
खेतों की मेड़ों, पगदंडी पर
घबराकर बालक दौड़ पड़े।
तभी गई नज़र एक खेत की मेड़ पर,
एक हाथ जितनी थी टूटी पड़ी,
ये देख अचंभित हुए सभी।
पर अकेला बालक आरुणि,
जिसने समय की गंभीरता को समझा।
झटपट टूटी मेड़ संग उसने,
अपने कोमल तन को जोड़ा,
लेटकर रोका जल के बहाव को।
उल्टे पांव सरपट सब भागे,
गुरु को सूचित किया सबने।
धान के खेत की उसने की रक्षा,
सुनकर आरुणि की महान दास्तां।
यह देख गुरु हुए फिर गर्वित,
गुरु का ऋण उतार दिया उसने।
मोल मिल गया गुरु को शिक्षा का,
आदर्श आचरण देख आरुणि का।
साहसिक कार्य कर पड़ा था मुर्छित,
आरुणि-गुरुभक्ति से हुए प्रसन्न चित।
आयोदधौम्य गुरु हुए धन्य देखकर,
आंखें भर आईं गले लगा कर।
आरुणि की भक्ति में थी सच्चाई,
गुरु शिष्य की परंपरा निभाई।
----- अर्चना सिंह जया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें