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रविवार, 6 सितंबर 2020

गुटरगूँ : वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी की रचना






रोज़  गुटरगूँ   करे  कबूतर
घर      छप्पर      अंगनाई
बैठ हाथ  पर दाना चुगकर
लेता         है       अंगड़ाई।

     
एक-एक  दाने  की खातिर
सबसे       करी       लड़ाई
सारा  समय गया  लड़ने में
भूख    नहीं     मिट    पाई
बैठ गया  दड़वे  में  जाकर
भूखे        रात       बिताई।
रोज़ गुटरगूँ--------------

बेमतलब  गुस्सा  करने  में
क्या    रक्खा    है     भाई
लाख टके की बात सभीने
आकर       उसे      बताई
छीना-झपटी पागलपन  है
नहीं       कोई      चतुराई।
रोज़ गुटरगूँ--------------

लिखा हुआ  दाने -दाने पर
नाम      सभी का      भाई
बड़े नसीबों से  मिलती  है
ज्वार,       बाजरा,     राई
खुदखाओ खानेदो सबको
इसमें        नहीं      बुराई।
रोज़ गुटरगूँ--------------

स्वयं  कबूतर  की पत्नी ने
उसको     कसम    दिलाई
नहीं करोगे  गुस्सा सुन लो
कहती       हूँ       सच्चाई
सिर्फ एकता  में बसती  है
घर   भर    की    अच्छाई
रोज़ गुटरगूँ-------------

तुरत कबूतर को पत्नी की
बात    समझ    में    आई
सबके  साथ गुटरगूँ  करके
जी   भर    खुशी    मनाई
आसमान  में ऊंचे उड़कर
कलाबाजियां          खाईं।
रोज़ गुटरगूँ



                वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
                    मुरादाबाद/उ,प्र,
                    9719275453
           


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