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मई
(26)
- नदियाँ: महेन्द्र सिंह देवांगन की रचना
- कोरोना बेवजह पीछे पड़ा है
- मोर का नृत्य वीरेन्द्र सिंह बृजवासी का बालगीत
- गणेश वंदना (छंद पकैया) प्रिया देवांगन प्रियू
- भिक्षांमदेही एक लघुकथा :वीरेन्द्र सिंह बृजवासी
- महेन्द्र सिंह देवांगन की रचवा "गिनती"
- गर्मी आई : शरद कुमार श्रीवास्तव
- बुद्ध पूर्णिमा : शरद कुमार श्रीवास्तव
- चुटकुले : संकलन अद्वित कुमार
- भैंस-गाय की बहस : वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की बाल...
- *माँ का तोहफ़ा* संकलन डाॅ पशुपतिनाथ पाण्डेय
- ईदगाह : मुंशी प्रेमचन्द की अनमोल कहानी
- कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर
- मजदूर" (कुण्डलिया)प्रिया देवांगन "प्रियू" की रचना
- समय है! वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की रचना
- चिड़िया रानी : वीरेन्द्र सिंह बृजवासी का बालगीत
- जंगल की बारात : डाॅ राम गोपाल भारतीय का बालगीत
- "माँ " मातृ दिवस पर विशेष अंजू जैन गुप्ता की रचना
- "गुड़िया रानी" "छन्न पकैया" बालगीत:प्रिया देवांगन ...
- मंद बयार वीणा श्रीवास्तव की अनुपम रचना
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- शामू 4 धारावाहिक कथा : शरद कुमार श्रीवास्तव
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- वैद्यराज लंगूर : वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की बाल रचना
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मई
(26)
बुधवार, 26 मई 2021
नदियाँ: महेन्द्र सिंह देवांगन की रचना
कोरोना बेवजह पीछे पड़ा है
बेवजह पीछे पड़ा है कोरोना,
जान लेने पर अड़ा है कोरोना,
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छींक,खांसी, ताप में रहता बसा,
कमज़ोरकीगर्दन मेंही फंदाकसा,
हैभीड़,मेला जनसभाओं में छुपा,
या शहर की तंग गलियों में घुसा,
हो रहे अनुमान भी सारे गलत,
कहाँ से आकर मरा है कोरोना।
कब सुरक्षित हैं कोरोना वीर भी,
पुलिस वाले या स्वयं रणधीर भी,
दे रहे प्राणों की जो आहुतियां,
भूलकर घरवार की सब पीर भी,
मौत पर ताली बजाकर खुशी से,
खूब खुलकर हंस रहा है कोरोना।
कब कहाँ पर यह झपट्टा मार दे,
हंसती-गाती जिंदगी में ज्वार दे,
कहाँ तक कोई यहां बचकर रहे,
मास्क, दूरी ही सुखी घरवार दे,
रंग बदलकर चाल चलने की यहां,
ताक में बैठा हुआ है कोरोना।
जोभी आयाहै वह निश्चित जाएगा,
करोना तू भी नहीं बच पाएगा,
सात टीके भेद देंगे जिस्म को,
बूटियों का असर भी पड़ जाएगा,
भाग ले अब भी समय है बावरे,
समय पूरा हो चुका है कोरोना,
है सभी का वक्त निर्धारित यहां,
समय पर है सांस आधारित यहां,
फिरभला तुझसेडरें हमकिसलिए,
तू हमें ले चल जहां चाहे वहाँ,
भाग जा क्या कर रहा है कोरोना।
बेवजह पीछे,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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मोर का नृत्य वीरेन्द्र सिंह बृजवासी का बालगीत
चकित हुए बच्चे सभी,
देख मोर का नृत्य,
कितने सुंदर पंख हैं,
कितना सुंदर कृत्य।
बादल आए झूमकर,
पड़ती मंद फुहार,
पीहू-पीहू के बोल की,
छाई मस्त बहार।
पंखों को झखझोर कर
होकर खुद में मस्त,
घूम - घूम हर ओर ही,
करे मयूरा नृत्य।
चुप होकर देखें सभी,
इसका अद्भुत नृत्य,
करें सराहना ईश की,
देख-देख यह दृश्य।
हम सबभी मिलकर करें,
ऐसा सुंदर नृत्य,
सारी कटुता त्यागकर,
बोलें मीठा सत्य।
रखें बदलकर आज हम,
जीवन के परिदृश्य,
केवल अपनापन बचे,
हो कटुता अदृश्य।
वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी'
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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गणेश वंदना (छंद पकैया) प्रिया देवांगन प्रियू
भिक्षांमदेही एक लघुकथा :वीरेन्द्र सिंह बृजवासी
भिक्षांमदेही,भिक्षांमदेही का स्वर उच्चारित कर पहुंचे हुए साधू बाबा ने द्वार खटखटाया और भिक्षापात्र में कुछ न कुछ डालने का आग्रह किया।
आवाज़ सुनकर मेरी माताजी उठीं और एक कटोरी आटा साधू के भिक्षापात्र में डालते हुए पूछा,है श्रेष्ठ ब्राह्मण मैं आपको एक पहुंचा हुआ संन्यासी कैसे मान लूँ।
तभी साधू की त्योरी चढ़ गईं वह उस महिला से बोला पुत्री, क्या तुझे हमारे ब्रहम्मणत्व और हमारी
अपार शक्तियों पर कोई शंका है।जो तू ऐसा कह रही है।हम तो अंतर्यामी हैं।
मेरी माताश्री ने विनम्रता पूर्वक कहा।है साधू श्रेष्ठ आप जिस घर से भी कुछ मांगने जाते हैं वहाँ उच्च स्वर में केवल यही आवाज़ लगाते हैं।
भिक्षांमदेही, भिक्षामंदेही,,,,
वह भी एक बार नहीं अने
कों बार उसे दोहराते भी रहते हैं।
आप अपने अंतर्मन से यह ज्ञात करने में विफल क्यों हो जाते हैं कि जिस घर में आप भिक्षा माँग रहे हैं,उस घर में हाल ही में किसी की मृत्य हुई है,कोई भयानक बीमार से तड़प रहा है।किसी का बच्चा कई दिन से घर से गायब है। या उस घर में चोरी भी हो चुकी है।अर्थात उस घर के लोग कितना परेशान हैं।फिर भी आप अपने आप को अंतर्यामी कहते हैं।
ईश्वर हमें तो माफ कर ही देगा परंतु आपको तो कभी माफ नहीं कर सकता,क्यों कि अंजाने में हुई भूल, भूल नहीं होती परंतु जानबूझ कर और अपनी स्वार्थ सिद्धि में में किया गया कार्य निःसंदेह अपराध होता है।
मेरी नज़र में तो आप भी एक अपराधी से कम नहीं हैं।
मेरी बातों पर क्रोध नहीं मनन की आवश्यकता है सन्यासी जी,,,,
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वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी'
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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महेन्द्र सिंह देवांगन की रचवा "गिनती"
एक चिड़िया आती है, चींव चींव गीत सुनाती है ।
तीन चूहे राजा हैं , रोज बजाते बाजा हैं ।
चार कोयल आती हैं , मीठी गीत सुनाती हैं ।।
पाँच बन्दर बड़े शैतान, मारे थप्पड़ खींचे कान ।
छः तितली की छटा निराली , उड़ती है वह डाली डाली ।।
सात शेर जब मारे दहाड़ , काँपे जंगल हिले पहाड़ ।
आठ हाथी जंगल से आये , गन्ने पत्ती खूब चबाये ।।
नौ मयूर जब नाच दिखाये , सब बच्चे तब ताली बजाये ।
दस तोता जब मुँह को खोले , भारत माता की जय जय बोले ।।
महेंद्र देवांगन "माटी"
प्रेषक सुपुत्री प्रिया देवांगन "प्रियू")
पंडरिया
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़
गर्मी आई : शरद कुमार श्रीवास्तव
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बुद्ध पूर्णिमा : शरद कुमार श्रीवास्तव
भगवान बुद्ध का जन्म उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर के समीप नेपाल की तराई मे स्थित कपिलवस्तु राज्य के महाराजा शुद्धोदन तथा महारानी महारानी महामाया के पुत्र के रूप मे हुआ था मात्र जन्म के सात दिनो मे ही माता का निधन हो गया था माता के दिवंगत होने के पश्चात इनकी मौसी गौतमी जो महाराजा शुद्धोदन की छोटी रानी भी थी ने लालन-पालन किया जिसके कारण उनका नाम गौतम पड़ा और बाद मे गौतम बुद्ध पड़ा । इनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था
बचपन मे ज्योतिषियों ने महाराज को बतलाया था कि यह शीघ्र ही संन्यासी हो जाऍंगे अतः महाराज शुद्धोदन ने सिद्धार्थ का लालन-पालन बहुत ही ऐश्वर्यपूर्ण वातावरण मे किया था । सिद्धार्थ का व्यक्तित्व सहृदय और संवेदनशील था । प्रातःकालीन भ्रमणो के दौरान एक बीमार, एक वृद्ध और एक मृतक को देखने पर वे द्रवित हो गये और उन अवस्थाओं के कारणो के अन्वेषण मे लग गए । महाराज शुद्धोदन को जब पता लगा तब उन्होने एक अति सुन्दर कन्या यशोधरा से उनका विवाह करा दिया जिससे सिद्धार्थ को एक पुत्रधन की प्राप्ति हुई। सिद्धी की खोज मे लिप्त सिद्धार्थ के मन को पत्नी और पुत्र का मोह अधिक दिनों तक बांध नही सका । एक रात्रि को पत्नी और पाँच साल के राहुल को सोता छोड़कर सिद्धि की खोज मे मात्र 29 वर्ष की आयु मे वे अनिर्दिष्ट स्थान के लिए निकल गये।
बाद मे वैशाख की पूर्णिमा के दिन ३५ वर्ष की आयु में सिद्धार्थ बिहार के गया मे स्थित बोधगया मे पीपल वृक्ष के नीचे में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या करने के बाद इसी दिन सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा। वस्तुत वहाँ पर समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ।वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहे थे। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल के पेड़ के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया।
चुटकुले : संकलन अद्वित कुमार
मंगलवार, 25 मई 2021
भैंस-गाय की बहस : वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की बाल रचना
कहा भैंस ने गैया मुझसे,
बहस कभी मत करना,
खाकर पन्नी, कूड़ा कचरा,
पेट यहां तू भरना।
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शुद्ध नीर,भूसा, चोकर तो,
नहीं भाग्य में तेरे,
चना,बिनोला,खलचोकरतो,
बदा भाग्य में मेरे,
दूर खड़ी ऐसे खाने की,
सिर्फ सोचती रहना।
मेरा मालिक मेरे तन को,
शीशे सा चमकाता,
दुहकर दूध तुझे गौपालक,
घरसे दूर भगाता,
तेरे मालिक को आता है,
सिर्फ दिखावा करना।
मेरा मालिक मुझे नित्य ही,
गुड़ और तेल पिलाता,
तेरा मालिक तुझको केवल,
सूखी घास खिलाता,
उसको नहीं अखरता कतई,
तेरा जीना मरना।
बहन बहुत मत शेखी मारो,
थोड़ा चुपभी जाओ,
मेरे लाख गुणों का भी तो,
वर्णन सुनती जाओ,
जो बोलूँगी सच बोलूँगी,
झूठ नहीं कुछ कहना।
मेरे रोम - रोम में रहता,
सब देवों का वास,
मेरी पूजा से होता है,
सबका तन-मन साफ,
बच्चो व्यर्थ बहस करने से,
होता है अपमान।
वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
रविवार, 16 मई 2021
*माँ का तोहफ़ा* संकलन डाॅ पशुपतिनाथ पाण्डेय
मातृ दिवस पर विशेष
शालिनी बोली, "नहीं पूछा। अब उनको इस उम्र में क्या चाहिए होगा यार, दो वक्त की रोटी और दो जोड़ी कपड़े....... इसमें पूछने वाली क्या बात है?
यह बात नहीं है शालू...... माँ पहली बार दिवाली पर हमारे घर में रुकी हुई है। वरना तो हर बार गाँव में ही रहती हैं। तो... औपचारिकता के लिए ही पूछ लेती।
अरे इतना ही माँ पर प्यार उमड़ रहा है तो ख़ुद क्यों नहीं पूछ लेते? झल्लाकर चीखी थी शालू ...और कंधे पर हैंड बैग लटकाते हुए तेज़ी से बाहर निकल गयी।
सूरज माँ के पास जाकर बोला, "माँ, हम लोग दिवाली की ख़रीदारी के लिए बाज़ार जा रहे हैं। आपको कुछ चाहिए तो..
माँ बीच में ही बोल पड़ी, "मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा।" सोच लो माँ, अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिए.....सूरज के बहुत ज़ोर देने पर माँ बोली, "ठीक है, तुम रुको, मैं लिख कर देती हूँ। तुम्हें और बहू को बहुत ख़रीदारी करनी है, कहीं भूल न जाओ।" कहकर सूरज की माँ अपने कमरे में चली गईं। कुछ देर बाद बाहर आईं और लिस्ट सूरज को थमा दी।......
सूरज ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए बोला, "देखा शालू, माँ को भी कुछ चाहिए था, पर बोल नहीं रही थीं। मेरे ज़िद करने पर लिस्ट बना कर दी है। इंसान जब तक ज़िंदा रहता है, रोटी और कपड़े के अलावा भी बहुत कुछ चाहिये होता है।"
अच्छा बाबा ठीक है, पर पहले मैं अपनी ज़रूरत का सारा सामान लूँगी। बाद में आप अपनी माँ की लिस्ट देखते रहना। कहकर शालिनी कार से बाहर निकल गयी। पूरी ख़रीदारी करने के बाद शालिनी बोली, "अब मैं बहुत थक गयी हूँ, मैं कार में A/C चालू करके बैठती हूँ, आप अपनी माँ का सामान देख लो।"
अरे शालू, तुम भी रुको, फिर साथ चलते हैं, मुझे भी ज़ल्दी है। देखता हूँ माँ ने इस दिवाली पर क्या मँगाया है? कहकर माँ की लिखी पर्ची ज़ेब से निकालता है।
बाप रे! इतनी लंबी लिस्ट, ..... पता नहीं क्या - क्या मँगाया होगा? ज़रूर अपने गाँव वाले छोटे बेटे के परिवार के लिए बहुत सारे सामान मँगाये होंगे। और बनो *श्रवण कुमार*, कहते हुए शालिनी गुस्से से सूरज की ओर देखने लगी।
पर ये क्या? सूरज की आँखों में आँसू........ और लिस्ट पकड़े हुए हाथ सूखे पत्ते की तरह हिल रहा था..... पूरा शरीर काँप रहा था।
शालिनी बहुत घबरा गयी। क्या हुआ, ऐसा क्या माँग लिया है तुम्हारी माँ ने? कहकर सूरज के हाथ से पर्ची झपट ली....
हैरान थी शालिनी भी। इतनी बड़ी पर्ची में बस चंद शब्द ही लिखे थे.....
*पर्ची में लिखा था....*
"बेटा सूरज मुझे दिवाली पर तो क्या किसी भी अवसर पर कुछ नहीं चाहिए। फिर भी तुम ज़िद कर रहे हो तो...... तुम्हारे शहर की किसी दुकान में अगर मिल जाए तो *फ़ुरसत के कुछ पल* मेरे लिए लेते आना.... ढलती हुई साँझ हूँ अब मैं। सूरज, मुझे गहराते अँधियारे से डर लगने लगा है, बहुत डर लगता है। पल - पल मेरी तरफ़ बढ़ रही मौत को देखकर.... जानती हूँ टाला नहीं जा सकता, शाश्वत सत्य है..... पर अकेलेपन से बहुत घबराहट होती है सूरज।...... तो जब तक तुम्हारे घर पर हूँ, कुछ पल बैठा कर मेरे पास, कुछ देर के लिए ही सही बाँट लिया कर मेरे बुढ़ापे का अकेलापन।.... बिन दीप जलाए ही रौशन हो जाएगी मेरी जीवन की साँझ.... कितने साल हो गए बेटा तुझे स्पर्श नहीं किया। एक बार फिर से, आ मेरी गोद में सर रख और मैं ममता भरी हथेली से सहलाऊँ तेरे सर को। एक बार फिर से इतराए मेरा हृदय मेरे अपनों को क़रीब, बहुत क़रीब पा कर....और मुस्कुरा कर मिलूँ मौत के गले। क्या पता अगली दिवाली तक रहूँ ना रहूँ.....
पर्ची की आख़िरी लाइन पढ़ते - पढ़ते शालिनी फफक-फफक कर रो पड़ी.....
*ऐसी ही होती हैं माँ.....*
दोस्तो, अपने घर के उन विशाल हृदय वाले लोगों, जिनको आप बूढ़े और बुढ़िया की श्रेणी में रखते हैं, वे आपके जीवन के कल्पतरु हैं। उनका यथोचित आदर-सम्मान, सेवा-सुश्रुषा और देखभाल करें।
पशुपतिनाथ पाण्डेय
ईदगाह : मुंशी प्रेमचन्द की अनमोल कहानी
ईद के अवसर पर पाठकों को ईद की हार्दिक बधाई प्रस्तुत है मुंशी प्रेमचन्द की अनुपम वर्ष 1933 मे लिखी कहानी
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाऍंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाऍंगें— खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियॉँ लेकर आऍंगे। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियॉँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आऍंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहॉँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी। हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहॉँ सेवैयॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहॉँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आऍंगी। सभी को सेवेयॉँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाऍंगे। गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियॉँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता हे। माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है। लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को केसा उल्लू बनाया है। बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहॉँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहॉँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाऍं। महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम। मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए। महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं। मोहसिन—हॉँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच। आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयॉँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये। हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहॉँ से मिल जाऍंगी? मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाऍं। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाऍं। हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं? मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए। हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ। मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं। अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है। आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए। हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं? मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहॉँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए। हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है? ‘कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं? अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियॉँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा। सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियॉँ एक के पीछे एक न जाने कहॉँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहॉँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहॉँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही ग्रम चलता, रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं।
2
नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हें। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता। सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के! मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा। नूरे—ओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा। सम्मी—ओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी। हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है। खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियॉँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है। मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है! हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियॉँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है। मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा। हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है? सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें? महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है। हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयॉँ लिखी हैं। मोहसिन—लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते? महमूद—इस समझते हें, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाऍंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा। मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहॉँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पररूक जात हे। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तबे से रोटियॉँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियॉँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाऍंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियॉँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मॉँ बेचारी को कहॉँ फुरसत हे कि बाजार आऍं और इतने पैसे ही कहॉँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी मिठाइयॉँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करों। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाऍं मिठाइयॉँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍंगे और मार खाऍंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आऍंगे। अम्मा भी ऑंएगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियॉँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है? दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी! ‘बिकाऊ है कि नहीं?’ ‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहॉँ क्यों लाद लाए हैं?’ तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’ ‘छ: पैसे लगेंगे।‘ हामिद का दिल बैठ गया। ‘ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘ हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे? यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियॉँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियॉँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाऍं करते हैं! मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा? हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियॉँ चूर-चूर हो जाऍं बचा की। महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है? हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाऍं, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा। सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है। हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा। चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे। अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियॉँ भिश्ती के छक्के छूट जाऍं, जो मियॉँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाऍं। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा। मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जारे लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता? हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा। मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाऍं तो अदालम में बॅधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे। हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौने आएगा? नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला। हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे! मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा। उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाऍंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है। महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है? इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है? हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा। बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों? संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो। महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए। हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं। हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछे—मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले। लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है। मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा? महमूद—दुआ को लिय फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले? हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें—हिन्द हे ओर सभी खिलौनों का बादशाह। रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दियें। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद थां।
विकिपीडिया से साभार
कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर
मजदूर" (कुण्डलिया)प्रिया देवांगन "प्रियू" की रचना
मजदूरी का काम है, करते प्रतिदिन काम।
बहे पसीना माथ से, मिले नहीं आराम।।
मिले नहीं आराम, हाथ छाले पड़ जाते।
सर्दी हो या ठंड, मेंहनत कर के खाते।।
परिवारों को देख, रहे सबकी मजबूरी।
कैसी हो हालात, करे फिर भी मजदूरी।।
कहते हैं मजदूर को, जग के हैं भगवान।
कर्म करें वो रात दिन, बने नेक इंसान।।
बने नेक इंसान, सभी के महल बनाते।
करते श्रम हर रोज, तभी तो रोटी खाते।।
धूप रहे या छाँव, बोझ सबके है सहते।
सुख दुख रहते साथ, कभी कुछ भी ना कहते।।
छाले पड़ते हाथ में, काँटे चुभते पाँव।
सहते कितनी मुश्किलें, बैठे कभी न छाँव।।
बैठे कभी न छाँव, ठोकरे दर दर खाते।
रहती है मजबूर, नहीं दिखती हालाते।।
आँसू उनके देख, जुबाँ लग जाते ताले।
चलते नंगे पांँव, हाथ पड़ जाते छाले।।
रचनाकार
प्रिया देवांगन "प्रियू"
पंडरिया
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़
समय है! वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की रचना
मौतसे जीवन बचाने का समय है,
जिंदगी को गुनगुनाने का समय है,
कब तलक एकांत में बैठे रहेंगे,
हुनरकोभीआज़मानेका समय है।
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नोचकर मायूसियों के पंख फैकें,
हौसलों की भी उड़ानों को न रोकें,
व्याधियां नव रूप ले आती रहेंगी,
कहाँतक इनका भयंकर,रूप देखें,
उठो, इनको मात देनेका समय है।
एकता की डोरको अक्षुण्य रखना,
सदा अंतरात्मा को पुण्य रखना,
कोरोना कीअग्नि मेंजलते हुए को,
सहायतादेकरस्वयंकोधन्य रखना,
सांसमेंअबआस भरनेका समय है,
वैश्विक बीमारियों का दंश झेला,
बड़ीमाता,प्लेग सा भयभीत रेला,
समयके आगे ठहरपाया नहींकुछ,
रहगया बनकर समयकाएकखेला,
बुद्धि क्षमताआजमानेका समयहै।
कहर कोरोना ने बरपाया हुआ है,
मौतबनकर हरतरफ छायाहुआ है,
करोड़ोंकी जिंदगी को लीलकरभी,
नित बदलकररूप इतरायाहुआ है,
सभीको टीका लगानेका समय है।
क्याबिगाड़ेगा हमारा हम गजब हैं,
मास्क,दूरी,हाथ धोने में अजब हैं,
यह डरे हमसे न हम इससे डरेंगे,
प्रणहमारा कोरोनापर हीसितब है,
हारकर भी जीतजानेका समय है।
मौत से जीवन-----------------
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वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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चिड़िया रानी : वीरेन्द्र सिंह बृजवासी का बालगीत
छोटे अंडों पर बैठी है,
छोटी चिड़िया रानी,
भूली सारा सैर - सपाटा,
भूली दाना - पानी।
सुंदर बच्चों की चाहतमें,
कर बैठी नादानी,
आकर कहाचिरौटेने तब,
क्या करती हो रानी?
ऐसे भूखी प्यासी रहकर,
होगी खत्म कहानी,
किसको बोलेंगे,यह बच्चे
अपनी मम्मी रानी।
बोला चिड़ियासेजाकरके,
पी लो ठंडा पानी,
हवा चलरही प्यारी-प्यारी,
दूर करो हैरानी।
मैं अंडों के ऊपर बैठा,
करता हूँ निगरानी,
आकरचिड़ियाने बतलाया,
क्या करते हो जानी?
![]() |
सांप चढ़ रहा है डाली पर,
करने को मनमानी,
कोईयुक्ति लगाओ जिससे,
भागे यह अभिमानी।
मिलकरशोर मचाया सबने,
किए वार बलिदानी,
घायल होकर गिरे सांप को,
याद आ गई नानी।
वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
जंगल की बारात : डाॅ राम गोपाल भारतीय का बालगीत
जंगल के राजा जंगल में ले करके आ गए बरात
हाथी भालू शेर दूल्हे संग ,है बिल्ली दुल्हन के साथ।
गीदड़ लोमड शोर मचाते ,बंदर करते हैं हुड़दंग
आपस की दुश्मनी भूलकर नाच रहे देखो संग संग
कहे भेड़िया जल्दी पहुंचो नहीं तो हो जाएगी रात।
दाल बनाकर खड़ी लोमड़ी ,बिल्ली रोटी सेक रही
चावल चूल्हे चढ़ा बंदरिया पल पल बाहर देख रही
आने को बारात है भैया भालू जी कब देंगे भात।
गाजे बाजो के संग आ पहुंची बरातियों की टोली
धूम धड़ाका हुई पार्टी सज गई रानी की डोली
भालू रोया दुल्हन का देकर दूल्हे के हाथ में हाथ।
डॉ राम गोपाल भारतीय
128 शीलकुंज रुड़की रोड
मेरठ
"माँ " मातृ दिवस पर विशेष अंजू जैन गुप्ता की रचना
माँ तुम ईश्वर की रचना,
रचती सदा सृष्टि सारी।
कल-आज और कल में भी
नहीं बदलता तेरा स्वरूप (form)।
माँ गर्भ में रख तुम नौ महीने
अहसान नहीं जताती;
पल-पल अपने रक्त(blood)
से सीँच हमें बड़ा बनाती।
माँ तुम ईशवर की रचना,
रचती सृष्टि सारी।
तेरे आँचल की छाँव तले
तो मिलता स्नेह, त्याग, समर्पण
और सुपुन ढेर सारा।
माँ तुम ईश्वर की रचना,
रचती सृष्टि सारी।
तेरे बच्चों पर संकट आए तो
रौद्र रूप तुम धारण करती।
उसकी साँसों पर बन आए
( मुसीबत आए) तो,
अपनी साँसें कभी न
गिनती।
माँ तुम ईशवर की रचना,
रचती सृष्टि सारी।
तेरे आशीष तले ही
बसती दुनिया सारी।
अंजू जैन गुप्ता
गुरुग्राम
"गुड़िया रानी" "छन्न पकैया" बालगीत:प्रिया देवांगन प्रियू
छन्न पकैया छन्न पकैया, छोटी गुड़िया रानी।
सुनो सुनो सब भैया दीदी, इसकी एक कहानी।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, चलती सड़क किनारे।
एक हाथ गुलदस्ता पकड़े, दूजे में गुब्बारे।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, चिड़िया पँख फैलाये।
संग संग गुड़िया रानी के, चिड़िया उड़ते जाये।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, चलती आगे आगे।
अपनी ही परछाई देखे, उसके पीछे भागे।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, करती है शैतानी।
इधर उधर वह दौड़ा करती, होती है हैरानी।।
प्रिया देवांगन "प्रियू"
पंडरिया
जिला - कबीरधाम
छत्तीसगढ़
गुरुवार, 6 मई 2021
मंद बयार वीणा श्रीवास्तव की अनुपम रचना
ग्रीष्म काल की तपती गर्मी सब पर कहर ढा रही थी ! चारों ओर सब सूनसान पड़ा था पूरा नीरवता का वातावरण दिखाई पड रहा था ! ऐसे में मंद-बयार, कल्लोल करती नदी,नाले, तालाब, पहाड़ों से टकराती, मदहोश हो इठ्लाती बल-खाती बह रही थी! जिसे भी वह स्पर्श करती वही खुश होकर उसके गुण गान किये बिना नही रहता था! चुपके-चुपके वह अपने भावुक मन को नियन्त्रित करती हुई सबकी बातें सुनती जा रही थी !अपनी शीतलता, लहराने तथा चंचलता की प्रशंसा सुनकर वह गदगद हो उठती थी उसका जी चाहता था कि वह वहीं खडी होकर सबका मन मोह ले! परन्तु वायु कब तक स्थिर रह सकती थी ? आखिर वह मन मार कर चल दी!रह रह कर लोगों की बातें और तारीफें सुन कर उसका मन गुदगुदाने लगता था! चलते- चलते वह सोंच रही थी कि लोगों पर उसके कितने अहसान हैं वह लोगों को कितना आराम देती है ! उसके मन मे घमन्ड उपजा और वह सोचने लगी कि लोगों को तो उसे पूजना चहिये एवं सर्वोच्च आसन पर बैठाना चहिये! इसी समय जब उसकी निगाहें पास ही के वृक्ष पर लगे शहद की मक्खी के छत्ते पर गईं तो वह सन्न रह गई! उसने देखा कि पास ही मे दो लोग खडे हैं जिन्होंने छत्ते मे एक छेद कर दिया था और उसमे से रिस रिस कर शहद नीचे रखे बर्तन मे गिर रहा था ! यह सब देख कर भी मधुमख्खियाँ उसी तन्मयता से अपने काम मे लगी हुई थीं ! उन्हे कोई चिन्ता नहीं थी कि उनका शहद दूसरे लोग ले रहे हैं और उनके परिश्रम के मीठे फल का लाभ दूसरे लोग उठा रहें हैं ! अपने जीवन की पूंजी को लुट्ते देख कर भी वे दुखी या निराश नहीं थीं बल्कि वे गुनगुनाकर मस्त जीवन गुजार रही थीं ! यह देख कर बयार का मन आत्मग्लानि से भर गया उसने अपने आपको मधुमख्खियों के आगे बहुत तुच्छ पाया ! वह तुरन्त, एक ही झटके मे, उठ कर फिर से बहने लगी! कभी पेडों को चूमती कभी लोगों कि जुल्फों को सहला देती ! इसी तरह लहरा कर सायं-सूं का गीत गाती आगे बढ रही थी मानों सबको खुश करने का ठेका उसी ने ले रखा हो! एक छोटी सी घटना ने उसके जीवन का, उसके बहने का,मतलब और मकसद ही बदल दिया था।
वीना श्रीवास्तव
धर्मपत्नी शरद कुमार श्रीवास्तव
"बहुत हुआ, बस लौट जा कोरोना अंजू जैन गुप्ता की बाल कविता
"बहुत हुआ, बस लौट जा "
वाह रे कोरोना देखी तेरी यारी
क्या बचपन, क्या जवानी ,
तेरी तो बुढ़ापे से भी निकली यारी
वाह रे कोरोना देखी तेरी यारी
हँसते - खेलते जग को
बनाने में लगा है शमशान।
अपनो से अपनों का साथ छीन
फैला रहा चहुँ ओर कहर।
वाह रे कोरोना देखी तेरी यारी
आज हर- पल, हर- लम्हा बस
सुनाई दे रहा है तेरा ही शोर।
थम जा,ठहर जा ;ज्यों आया था
त्यों ही लौट जा।
माना कि मानव की कुछ ग़लतियों का
परिणाम है तु ,पर बहुत किया भुगतान भी हमने ,अब ठहर जा लौट जा।
रूकती सी दुनिया को कुछ रफ़्तार लेने दे ;जी भर जीने दे ,कुछ साँसें उधार दे दे।
वाह रे कोरोना देखी तेरी यारी
अब माफ़ कर हमको और वापिस ले जा अपनी गाड़ी।
अंजू जैन गुप्ता
शामू 4 धारावाहिक कथा : शरद कुमार श्रीवास्तव
हृदय की विशालता को नमन! वीरेन्द्र सिंह बृजवासी की (लघु कहानी)
अचानक पिता जी ने मुझे पास बुलाया और सामने का दरवाज़ा खोलने का आदेश देते हुए साथ में कमरे की बत्ती जलाने को भी कहा। मैंने पहले तो कमरे की बत्ती जलाई,फिर धीरे से किवाड़ खोल दी।
किवाड़ खुलते ही पधारे हुए सज्जन जो पिताजी के गहरे मित्र थे,अंदर आते ही पिताजी ने उनको गले लगाकर आदरपूर्वक सोफे पर बिठाया।तथा कुशल क्षेम पूछकर मुझे आवाज़ लगाई और पहले पानी फिर चाय नाश्ते की व्यवस्था के लिए कहा।
मैं अंदर ही अंदर इतना भयभीत था कि अंकल मेरी शिकायत कहीं पिता जी से न कर दें।परंतु अंकल जी ने पिता जी को यह तो नहीं बताया कि कल मैंने अंकलजी की टोपी को कांटा लगाकर ऊपर खींच लिया और चंदा देने पर ही
टोपी देने को तैयार हुआ।
पापा जी ने अंकल के साथ मिलकर चाय नाश्ता किया।और चलते समय मुझे अपने पास बुलाकर कहा।लो यह तुम्हारे लिए है।और यह भी कहा कि त्योहार सबकी खुशियों के साथ मिलकर मनाना अच्छा रहता है।पापा ने कुछ जानना चाहा भी तो अंकल जी ने पापा को यह कहकर चुप कर दिया।यह मेरी और मोहन की बात है।
मैं अंकल जी की उदारता और गलती पर प्यार से समझाने के अनोखे तरीके का कायल हो चुका था। मैंने अंकलजी को चरण स्पर्श करके पुनः आशीष देने आने का आग्रह किया।
जब मैंने मुट्ठी खोली तब देखा कि उसमें होली की शुभकामनाओं सहित 500/-रु का नोट जो मुझे मेरी शरारत के लिए लज्जित कर रहा है।
हमें बुजुर्गों का आदर करना चाहिए।अंकल जी की यही मूक सलाह हमारे जीवन को प्रेरणा देती रहेगी।
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वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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