भगवान बुद्ध का जन्म उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर के समीप नेपाल की तराई मे स्थित कपिलवस्तु राज्य के महाराजा शुद्धोदन तथा महारानी महारानी महामाया के पुत्र के रूप मे हुआ था मात्र जन्म के सात दिनो मे ही माता का निधन हो गया था माता के दिवंगत होने के पश्चात इनकी मौसी गौतमी जो महाराजा शुद्धोदन की छोटी रानी भी थी ने लालन-पालन किया जिसके कारण उनका नाम गौतम पड़ा और बाद मे गौतम बुद्ध पड़ा । इनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था
बचपन मे ज्योतिषियों ने महाराज को बतलाया था कि यह शीघ्र ही संन्यासी हो जाऍंगे अतः महाराज शुद्धोदन ने सिद्धार्थ का लालन-पालन बहुत ही ऐश्वर्यपूर्ण वातावरण मे किया था । सिद्धार्थ का व्यक्तित्व सहृदय और संवेदनशील था । प्रातःकालीन भ्रमणो के दौरान एक बीमार, एक वृद्ध और एक मृतक को देखने पर वे द्रवित हो गये और उन अवस्थाओं के कारणो के अन्वेषण मे लग गए । महाराज शुद्धोदन को जब पता लगा तब उन्होने एक अति सुन्दर कन्या यशोधरा से उनका विवाह करा दिया जिससे सिद्धार्थ को एक पुत्रधन की प्राप्ति हुई। सिद्धी की खोज मे लिप्त सिद्धार्थ के मन को पत्नी और पुत्र का मोह अधिक दिनों तक बांध नही सका । एक रात्रि को पत्नी और पाँच साल के राहुल को सोता छोड़कर सिद्धि की खोज मे मात्र 29 वर्ष की आयु मे वे अनिर्दिष्ट स्थान के लिए निकल गये।
बाद मे वैशाख की पूर्णिमा के दिन ३५ वर्ष की आयु में सिद्धार्थ बिहार के गया मे स्थित बोधगया मे पीपल वृक्ष के नीचे में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या करने के बाद इसी दिन सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा। वस्तुत वहाँ पर समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ।वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहे थे। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल के पेड़ के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया।
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