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बुधवार, 26 मई 2021

भिक्षांमदेही एक लघुकथा :वीरेन्द्र सिंह बृजवासी





भिक्षांमदेही,भिक्षांमदेही का स्वर उच्चारित कर पहुंचे हुए साधू बाबा ने द्वार खटखटाया और भिक्षापात्र में कुछ न कुछ डालने का आग्रह किया।

    आवाज़ सुनकर मेरी माताजी उठीं और एक कटोरी आटा साधू के भिक्षापात्र में डालते हुए पूछा,है श्रेष्ठ ब्राह्मण मैं आपको एक पहुंचा हुआ संन्यासी कैसे मान लूँ।

तभी साधू की त्योरी चढ़ गईं वह उस महिला से बोला पुत्री, क्या तुझे हमारे ब्रहम्मणत्व और हमारी

अपार शक्तियों पर कोई शंका है।जो तू ऐसा कह रही है।हम तो अंतर्यामी हैं।

          मेरी माताश्री ने विनम्रता पूर्वक कहा।है साधू श्रेष्ठ आप जिस घर से भी कुछ मांगने जाते हैं वहाँ उच्च स्वर में केवल यही आवाज़ लगाते हैं।

       भिक्षांमदेही, भिक्षामंदेही,,,,

   वह भी एक बार नहीं अने

कों बार उसे दोहराते भी रहते हैं।

        आप अपने अंतर्मन से यह ज्ञात करने में विफल क्यों हो जाते हैं कि जिस घर में आप भिक्षा माँग रहे हैं,उस घर में हाल ही में किसी की मृत्य हुई है,कोई भयानक बीमार से तड़प रहा है।किसी का बच्चा कई दिन से घर से गायब है। या उस घर में चोरी भी हो चुकी है।अर्थात उस घर के लोग कितना परेशान हैं।फिर भी आप अपने आप को अंतर्यामी कहते हैं।

          ईश्वर हमें तो माफ कर ही देगा परंतु आपको तो कभी माफ नहीं कर सकता,क्यों कि अंजाने में हुई भूल, भूल नहीं होती परंतु जानबूझ कर और अपनी स्वार्थ सिद्धि में में किया गया कार्य निःसंदेह अपराध होता है।

     मेरी नज़र में तो आप भी एक अपराधी से कम नहीं हैं।

      मेरी बातों पर क्रोध नहीं मनन की आवश्यकता है सन्यासी जी,,,,

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               वीरेन्द्र सिंह 'ब्रजवासी'

                   मुरादाबाद/उ,प्र,

                   9719275453

                    

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