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शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

अमर शहीद भगतसिंह : रचना शरद कुमार श्रीवास्तव

27 सितम्बर को अमर  शहीद भगत् सिंह का 118 वाँ जन्म दिन  था  । उनको अपनी तथा "नाना की पिटारी "की ओर से भावभीनी  श्रद्धांजलि


                       अमर  शहीद भगत् सिंह

वर्ष 1907 सितंबर  27 को भारत  का ऐसा  लाल हुआ
शीश चढाने  भारत  माँ  को  अपने  आप  मिसाल  हुआ

सरदार किशन सिंह ,माँ  विद्यावती का प्यारा लाल हुआ

लायलपुर  के  बंगा गांव  का बेटा धरती पर कमाल हुआ

नाम भगत सिंह  सपूत  देश  का  अंग्रेजो  का काल हुआ

लाला जी पे नृशंसता  का  बदला उसने खूब कमाल लिया

राजगुरू  संग सन 28 मे सैन्डर्स का काम  तमाम  किया

वीर सिंह, भारत माँ की खातिर फाँसी हंस के झूल लिया

शेर बन 22 वर्ष  की  उम्र  में फांसी  को गले लगा  लिया

हंस के चढ गया वह सूली पर इक पल भी उफ न किया


ऐसे शहीदे आज़म को शत शत नमन


शरद कुमार श्रीवास्तव 

अलौकिक लौकी (व्यंग्य)




 कभी सोचा कि प्रकृति ने लौकी क्यों बनाई ??


इसकी दो वजह हो सकती है ! 


पहली बात तो ये कि वो यह चाहते हों कि औरतों के पास कम से कम एक आध तो ऐसा मारक हथियार तो हो ही जिससे वो आदमियो को परास्त कर सके !


औरत लौकी बनाये बिना रह नही सकती ! लौकी नाराजगी जताने का सबसे कारगर तरीका है औरतों का !


थाली मे लौकी देखते ही बेवकूफ से बेवकूफ आदमी ये समझ जाता है कि उससे कोई बड़ी चूक हो चुकी है ! आदमी लौकी की वजह से ही दबता है अपनी बीबी से ! कायदे से रहता है ! आदमी को तमीज सिखाने का क्रेडिट यदि किसी को दिया जा सकता है तो वो लौकी ही है !


मेरी यह समझ मे यह बात कभी आयी नही कि लौकी से कैसे निपटें !लौकी आती है थाली में तो थाली थर थराने लगती है ! रोटियाँ मायूस हो कर किसी कोने मे सिमट जाती हैं ! जीभ लटपटा कर रह जाती है ! और आप बेचारगी से अचार, चटनी, पापड़ या दही के भरोसे हो जाते हैं ! हर कौर के बाद पानी का गिलास तलाशते हैं आप ! आपको लगने लगता है कि आपकी तबियत खराब है, आप ICU मे भर्ती हैं ! 

बंदा डिप्रेशन मे चला जाता है ! दुनिया वीरान - वीरान सी महसूस होती है ! कुछ अच्छा होने की कोई उम्मीद बाकी नही रह जाती ! मन गिर जाता है ! लगता है अकेले पड़ गये हैं ! 


दरअसल लौकी, लौकी नही होती, वो आपकी पत्नी की इज्जत का सवाल होती है ! आप पूरी हिम्मत करके लौकी का एक - एक निवाला गले से नीचे उतारते है ! पत्नी सामने बैठी होती है ! 

जानना चाहती है लौकी कैसी बनी ! 

आप पत्नी का मन रखने के लिये झूठ बोलना चाहते हैं पर लौकी झूठ बोलने नही देती ! लौकी की खासियत है ये ! 

इसे खाते हुये आदमी हरीशचन्द्र हो जाता है !

आप चाहते हुये भी लौकी की तारीफ नही कर पाते !


मेरा ख्याल से बंदे को शादी करने के पहले यह पता लगाने की कोशिश जरूर करनी चाहिये कि उसकी होने वाली पत्नी लौकी से प्यार तो नही करती !

वैसे ऐसी लड़की मिल भी जाये तो इसकी कोई गारंटी नही कि शादी होने के बाद उसका झुकाव लौकी की तरफ नही हो जायेगा ! दुनिया मे ऐसी लड़की अब तक पैदा ही नही हुई है जो पत्नी की पदवी हासिल कर लेने के बाद पति को सबक सिखाने के लिये लौकी का सहारा लेने से परहेज करे ! 


जब तक जहर इजाद नही हुआ था तब तक आदमी ने दुश्मनो को मारने के लिये निश्चित ही लौकी का ही इस्तेमाल करता रहा होगा !लम्बे टाईम से टिके मेहमान को दरवाजा दिखाने के लिये लौकी से बेहतर और कोई तरीका नही ! थाली में हर दूसरे वक्त लगातार लौकी के दर्शन कर ढीठ से ढीठ मेहमान भी समझ जाता है कि अब चला- चली का वक्त आ गया है ! 


पर एक तारीफ तो करनी ही पड़ेगी  इस लौकी की ! 

न्यायप्रिय होती है ये ! सब को एक - सा दुख देती है  !

स्वाभिमानी भी होती है ये ! अपने मूल स्वभाव और कर्तव्यो  से कभी नही डिगती ! लाख मसाले, तेल डाल दें आप इसमे ! ये पट्ठी टस से मस नही होती !

आप मर जायें सर पटक कर , पर लौकी हमेशा लौकी ही बनी रहती है !


इन्टरनेट  से साभार 






माँ का दर्द//बाल कहानी // प्रिया देवांगन "प्रियू"





माँ मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। वाह! मैदान भी हरा–भरा है। चीनू उछलते हुए अपनी माँ से कहने लगा; हम रोज आ कर खेलेंगे न.....! हाँ बेटा चीनू; माँ ने हँसते हुए हामी भरी। खुले मैदान में चीनू जैसे और भी छोटे – छोटे बच्चे खेल रहे थे यह देख चीनू और भी खुश हो गया।  चीनू की दोस्ती उन नन्हें –नन्हें बच्चों से हो गई। प्रतिदिन आते और मजे करते। इसी बहाने सबसे मिलना–जुलना भी हो जाता था। नील गगन के नजारे, ठंडी–ठंडी हवाएं, स्वच्छ वातावरण हृदय को छू लेती थी। 
              वहीं; सामने के बालकनी से नन्हीं प्रीत (बच्ची) भी इन्हें खेलते देखती और आनंद लेती; साथ ही साथ सोचती मैं भी इनके साथ खेलने जाती लेकिन...... दूर से देख कर ही मुस्कुराती।

आज शाम चीनू खेलते–खेलते थोड़ी दूर मैदान के दूसरे छोर पर चला गया। माँ अपनी सहेलियों से बात करने में व्यस्त क्या हो गई.....जैसे ही चीनू की माँ की नज़र  हटी वैसे ही दुर्घटना घटी। एक विशाल दरिंदा बाज आया और चीनू को उठा ले जा रहा था। चीनू जोर–जोर से चिल्लाने लगा। माँ....माँ मुझे बचाओ....बचाओ.....। सभी की नज़र चीनू की तरफ पड़ी। सभी दौड़ने लगे।  प्लीज़ माँ मुझे बचा लो......! दर्द भरी आवाज से चीनू कराहने लगा। चीनू की माँ सुध-बुध खोने लगी। पैरों तले जमीन खिसक गई। साँसें तेजी से ऊपर–नीचे होने लगी। आँखों से ऑंसू थम नहीं रहे थे। माँ भी चिल्लाने लगी; मेरे बेटे को कोई बचा लो.....। हे! विधाता ये क्या हो गया......? मेरा चीनू मुझे लौटा दो। बाकी बच्चे अपने–अपने माता–पिता से सहम कर लिपट गए। थोड़ी देर बाद..... सभी चीनू  की माँ को सांत्वना देने लगे। चुप हो जा री...... चीनू की माँ, चुप हो जा...। होनी को कौन टाल सकता है। हमारा जीवन कब तक है ऊपर वाले के अलावा कोई नहीं जान सकता। वो दरिंदा बाज न जाने कब से चीनू पर नज़र डाल रहा था। चीनू की माँ सुबकने लगी। बचाने की बहुत कोशिश की लेकिन आँखों से ओझल होते देर न लगी।

चीनू की आवाज सुन प्रीत झट से बालकनी में आ खड़ी हुई, जब तक काफी देर हो चुकी थी। चीनू बहुत दूर जा चुका था।
                    एक मांँ अपने बच्चे के दूर जाने से कैसे तड़प रही, प्रीत टकटकी लगाए देख रही थी; और मन ही मन स्वयं को कोसने लगी  काश....!! मैं चीनू को बचा पाती। इंसान हो या पशु–पक्षी; माँ तो माँ होती है न....! माँ का दर्द माँ ही जाने; आज मैं वहाँ पर जाती तो चीनू जो कि एक मुर्गी का बच्चा था शायद वह बच जाता। 




प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़