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शनिवार, 6 मई 2017

डॉ. प्रदीप शुक्ल की रचना : गौरैय्या





( डॉ. प्रदीप शुक्ल की पुस्तक  गुल्लू  के  गांव से )

गौरैय्या

चूं चूं करती फिरें चिरैय्या 
लेकिन नहीं दिखे गौरैय्या 

बचपन में कच्चे आँगन में 
गौरय्या हर दिन आती थीं 
आँगन के कोने में बैठीं 
आपस में कुछ बतियाती  थीं    

पिंजरे में मिट्ठू कहता था 
" गौरय्या आई है भैय्या "

दादी कहती सीखो उससे 
सारा दिन वो रहे फ़ुदकती
रोज़ सबेरे जग जाती है 
कभी नहीं बेटा वो थकती 

सुबह सुबह गर तुम्हे जगाऊँ 
तुम करते हो ताता थैय्या 

' गूगल ' पर ढूंढें गौरय्या 
हम ' गौरय्या दिवस ' मनायें 
चारों तरफ खड़ी मीनारें 
आँगन में अब धूप न आये 

गौरय्या की नहीं ज़रुरत 
मिल जाए बस हमें रुपय्या 

बेटा कहता क्या हम पापा  
इक दिन ऐसे गुम जायेंगे 
" मानव दिवस " मनाने कोई 
पर - ग्रह के प्राणी आयेंगे 

गौरय्या के खो जाने से  
दुखी हो रही धरती मैय्या.


                                  डॉ. प्रदीप शुक्ल 
  

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