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सोमवार, 26 मार्च 2018

महेन्द्र देवांगन की छतीसगढ़ी रचना : कलिंदर






वाह रे कलिन्दर , लाल लाल दिखथे अंदर ।

बखरी मा फरे रहिथे  , खाथे अब्बड़ बंदर ।

गरमी के दिन में,  सबला बने सुहाथे ।

नानचुक खाबे ताहन, खानेच खान भाथे ।

बड़े बड़े कलिन्दर हा , बेचाये बर आथे ।

छोटे बड़े सबो मनखे,  बिसा के ले जाथे ।

लोग लइका सबो कोई, अब्बड़ मजा पाथे ।

रसा रहिथे भारी जी, मुँहू कान भर चुचवाथे ।

खाय के फायदा ला , डाक्टर तक बताथे ।

अब्बड़ बिटामिन  मिलथे,  बिमारी हा भगाथे ।

जादा कहूँ खाबे त  , पेट हा तन जाथे ।

एक बार के जवइया ह, दू बार एक्की जाथे ।


महेन्द्र देवांगन माटी 

पंडरिया  (कवर्धा )

छत्तीसगढ़ 

8602407353

mahendradewanganmati@gmail.com





कलिन्दर = तरबूज
बखरी = बाड़ी
अब्बड़ = बहुत
नानचुक = छोटे से
मनखे = आदमी

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