बचपन कितना सुहाना था , सुबह होती स्कूल जाते ।
थक कर आते , फिर भी खेलने जाते ।
न किसी का बोझ सहना , न किसी पर बोझ थे हम
छोटी छोटी बातों में रोना , छोटी सी बातों में हँसते थे हम।
न रोने की वजह थी ,न हँसने का बहाना था
बारिश की फुहार से , खेलना अच्छा लगता था
कागज की नाव बना कर , कितने खुश हो जाते थे
बच्चों के संग मम्मी पापा, बच्चे बन जाते थे
थोड़ी सी बातों में रूठना, फिर सबका मनाना
कितना अच्छा लगता था।
न किसी की फिक्र थी , न किसी का गम था।
कहां गया वो बचपन हमारा , जिसमें खुशियों का खजाना था
बचपन कितना सुहाना था , बचपन कितना सुहाना था ।
प्रिया देवांगन " प्रियू"
पंडरिया
जिला - कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
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