अचानक पिता जी ने मुझे पास बुलाया और सामने का दरवाज़ा खोलने का आदेश देते हुए साथ में कमरे की बत्ती जलाने को भी कहा। मैंने पहले तो कमरे की बत्ती जलाई,फिर धीरे से किवाड़ खोल दी।
किवाड़ खुलते ही पधारे हुए सज्जन जो पिताजी के गहरे मित्र थे,अंदर आते ही पिताजी ने उनको गले लगाकर आदरपूर्वक सोफे पर बिठाया।तथा कुशल क्षेम पूछकर मुझे आवाज़ लगाई और पहले पानी फिर चाय नाश्ते की व्यवस्था के लिए कहा।
मैं अंदर ही अंदर इतना भयभीत था कि अंकल मेरी शिकायत कहीं पिता जी से न कर दें।परंतु अंकल जी ने पिता जी को यह तो नहीं बताया कि कल मैंने अंकलजी की टोपी को कांटा लगाकर ऊपर खींच लिया और चंदा देने पर ही
टोपी देने को तैयार हुआ।
पापा जी ने अंकल के साथ मिलकर चाय नाश्ता किया।और चलते समय मुझे अपने पास बुलाकर कहा।लो यह तुम्हारे लिए है।और यह भी कहा कि त्योहार सबकी खुशियों के साथ मिलकर मनाना अच्छा रहता है।पापा ने कुछ जानना चाहा भी तो अंकल जी ने पापा को यह कहकर चुप कर दिया।यह मेरी और मोहन की बात है।
मैं अंकल जी की उदारता और गलती पर प्यार से समझाने के अनोखे तरीके का कायल हो चुका था। मैंने अंकलजी को चरण स्पर्श करके पुनः आशीष देने आने का आग्रह किया।
जब मैंने मुट्ठी खोली तब देखा कि उसमें होली की शुभकामनाओं सहित 500/-रु का नोट जो मुझे मेरी शरारत के लिए लज्जित कर रहा है।
हमें बुजुर्गों का आदर करना चाहिए।अंकल जी की यही मूक सलाह हमारे जीवन को प्रेरणा देती रहेगी।
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वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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Bahut khoob...badhiya kahani.
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